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________________ विशेषावश्यकभाष्य १५५. आत्मा की नित्यता: आत्मा शरीर से भिन्न सिद्ध होने पर भी शरीर के समान क्षणिक तो है ही । ऐसी दशा में वह शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती है । तब फिर उसे शरीर से भिन्न सिद्ध करने से क्या लाभ ? यह शंका ठीक नहीं। पूर्व जन्म का स्मरण करने वाले जीव का उसके पूर्व भव के शरीर का नाश हो जाने पर भी क्षय नहीं माना जा सकता । जीव का क्षय मानने पर पूर्व भव का स्मरण करने वाला कोई नहीं रहता। जिस प्रकार बाल्यावस्था का स्मरण करने वाली वृद्ध की आत्मा का बाल्यकाल में सर्वथा नाश नहीं हो जाता क्योंकि वह बाल्यावस्था का स्मरण करती हुई प्रत्यक्ष दिखाई देती है, ठीक इसी प्रकार जीव भी पूर्व जन्म का स्मरण करता है, यह बात सिद्ध है । अथवा जिस प्रकार विदेश में गया हुआ कोई व्यक्ति स्वदेश की बातों का स्मरण करता है अतः उसे नष्ट नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार पूर्व जन्म का स्मरण करने वाले जीव का भी सर्वथा नाश नहीं माना जा सकता।' यदि कोई यह कहे कि जीवरूप विज्ञान को क्षणिक मानकर भी विज्ञान-संतति के सामथ्र्य से स्मरण की सिद्धि की जा सकती है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर का नाश हो जाने पर भी विज्ञान-संतति का नाश नहीं हुआ। अतः विज्ञानसंतति शरीर से भिन्न ही सिद्ध हुई। विज्ञान का सर्वथा क्षणिक होना सम्भव नहीं क्योंकि पूर्वोपलब्ध वस्तु का स्मरण होता हुआ दिखाई देता है। जो क्षणिक होता है उसे अतीत का स्मरण नहीं हो सकता । चूँकि हमें अतीत का स्मरण होता है अतः हमारा विज्ञान सर्वथा क्षणिक नहीं है। क्षणिकवाद के अनेक दोषों की ओर संकेत करते हुए भाष्यकार ने इस मत की स्थापना की है कि ज्ञान-संतति का जो सामान्य रूप है वह नित्य है अतः उसका कभी भी ब्यवच्छेद नहीं होता । यही आत्मा के नाम से प्रसिद्ध है। आत्मा की अदृश्यता: यदि आत्मा शरीर से भिन्न है तो वह शरीर में प्रविष्ट होते समय अथवा वहाँ से बाहर निकलते समय दिखाई क्यों नहीं देती ? किसी भी वस्तु की अनुपलब्धि दो प्रकार की होती है : (१) जो वस्तु खरशृंगादि के समान सर्वथा असत् हो वह कभी भी उपलब्ध नहीं होती; (२) वस्तु सत् होने पर भी बहुत दूर, बहुत पास, अति सूक्ष्म आदि होने के कारण उपलब्ध नहीं होती । आत्मा स्वभाव से अमूर्त है तथा उसका कार्मण शरीर परमाणु के सदृश सूक्ष्म है अतः वह हमारे शरीर में प्रविष्ट होते समय अथवा शरीर से बाहर निकलते समय दिखाई नहीं देती। १. गा० १६७१. २. गा० १६७२-१६८१. ३. गा०१६८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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