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विशेषावश्यकभाष्य के समान उसका भी फल मानना चाहिए । वही फल कर्म है । इस कर्म के कार्यरूप से सुखदुःख आदि आगे जाकर पुनः हमारे अनुभव में आते हैं।' मूर्त कर्म :
यदि कार्य के अस्तित्व से कारण की सिद्धि होती है तो शरीर आदि कार्य के मूर्त होने के कारण उसका कारणरूप कर्म भी मूर्त ही होना चाहिए। इस संशय का निवारण करते हुए महावीर कहते हैं कि मैं कर्म को मूर्त ही मानता हूँ क्योंकि उसका कार्य मूर्त है। जैसे परमाणु का कार्य घट मूर्त है अतः परमाणु भी मूर्त है, वैसे ही कर्म का शरीरादि कार्य मूर्त है अतः कर्म भी मूर्त ही है ।२। ___ कर्म का मूर्तत्व सिद्ध करने वाले अन्य हेतु ये हैं : (१) कर्म मूर्त है क्योंकि उससे सम्बन्ध होने पर सुख आदि का अनुभव होता है, जैसे भोजन । जो अमूर्त होता है उससे सम्बन्ध होने पर सुख आदि का अनुभव नहीं होता, जैसे आकाश । (२) कर्म मूर्त है क्योंकि उसके सम्बन्ध से वेदना का अनुभव होता है, जैसे अग्नि। (३) कर्म मूर्त है क्योंकि उसमें बाह्य पदार्थों से बलाधान होता है । जैसे घटादि पदार्थों पर तेल आदि बाह्य वस्तु का विलेपन करने से बलाधान होता हैस्निग्धता आती है उसी प्रकार कर्म में भी माला, चन्दन, वनिता आदि बाह्य वस्तुओं के संसर्ग से बलाधान होता है अतः वह मूर्त है । (४) कर्म मूर्त है क्योंकि वह आत्मादि से भिन्न रूप में परिणामी है, जैसे दूध । ३ कर्म और आत्मा का सम्बन्ध : ___ कर्म को मूर्त मानने पर अमूर्त आत्मा से उसका सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? घट मूर्त है फिर भी उसका संयोग सम्बन्ध अमर्त आकाश से होता है। ठीक इसी प्रकार मूतं कर्म का अमूर्त आत्मा से सम्बन्ध होता है । अथवा जिस प्रकार अंगुली आदि मूर्त द्रव्य का आकुञ्चन आदि अमूर्त क्रिया से सम्बन्ध होता है उसी प्रकार कर्म और जीव का सम्बन्ध सिद्ध होता है।
स्थूल शरीर मूर्त है किन्तु उसका आत्मा से सम्बन्ध प्रत्यक्ष ही है। इसी प्रकार भवान्तर में जाते हुए जीव का कार्मण शरीर से सम्बन्ध होना ही चाहिए अन्यथा नये स्थूल शरीर का ग्रहण सम्भव नहीं हो सकता।"
मूर्त द्वारा अमूर्त का उपघात और अनुग्रह कैसे हो सकता है ? विज्ञानादि अमूर्त है किन्तु मदिरा, विष आदि मूतं वस्तुओं द्वारा उनका उपघात होता है तथा घी, दूध आदि पौष्टिक भोजन से उनका उपकार होता है। इसी प्रकार मूर्त कर्म द्वारा अमूर्त आत्मा का अनुग्रह अथवा उपकार हो सकता है ।
१. गा० १६१५-६. ४. गा० १६३५.
२. गा० १६२५. ५. गा० १६३६.
३. गा० १६२६-७. ६. गा० १६३७.
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