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________________ - १४२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अनुयोग : सूत्रकार्थकों का व्याख्यान करने के बाद अर्थैकार्थकों का व्याख्यान प्रारम्भ होता है । अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा, वार्तिक- ये पाँच एकार्थक हैं । अनुयोग का सात प्रकार से निक्षेप होता है : नामानुयोग, स्थापनानुयोग, द्रव्यानुयोग, क्षेत्रानुयोग, कालानुयोग, वचनानुयोग और भावानुयोग | आचार्य ने इन भेदों का विस्तृत विवेचन किया है । इसी प्रकार अनुयोग के विपर्ययरूप अननुयोग का भी सोदाहरण एवं सविस्तार वर्णन किया गया है। नियत, निश्चित अथवा हित ( अनुकूल ) योग का नाम नियोग है । इससे अभिधेय के साथ सूत्र का सम्बन्ध स्थापित होता है । इसका भी अनुयोग की भाँति सभेद एवं सोदाहरण विचार करना चाहिए । व्यक्त वाक् का नाम भाषा है । इससे श्रुत के भाव- सामान्य की अभिव्यक्ति होती है । भावविशेष की अभिव्यक्ति का नाम विभाषा है । वृत्ति (सूत्रविवरण ) का सर्व पर्यायों से व्याख्यान करना वार्तिक कहलाता है । " व्याख्यान विधि की चर्चा करते हुए भाष्यकार ने विविध दृष्टान्त देकर यह • समझाया है कि गुरु और शिष्य की योग्यता और अयोग्यता का मापदण्ड क्या है ? जिस प्रकार हंस मिले हुए दूध और पानी में से पानी को छोड़कर दूध पी जाता है उसी प्रकार सुशिष्य गुरु के दोषों को एक ओर रख कर उसके गुणों का ही ग्रहण करता है । जिस प्रकार एक भैंसा किसी जलाशय में उतरकर उसका सारा पानी इस प्रकार मटमैला व कलुषित कर डालता है कि वह न तो उसके खुद के पीने के काम में आ सकता है और न कोई अन्य ही उसे पी सकता है। उसी प्रकार कुशिष्य किसी व्याख्यान -मण्डल में जाकर अपने गुरु अथवा शिष्य के साथ इस प्रकार कलह प्रारम्भ कर देता है कि उस व्याख्यान का रस न तो वह स्वयं ले सकता है और न कोई अन्य ही उदाहरण देकर आचर्यं जिनभद्र ने गुरु-शिष्य के सफल चित्रण किया है । " । सामायिक द्वार : व्याख्यान - विधि का विवेचन करने के बाद आचार्य सामायिक सम्बन्धी द्वार इस प्रकार है : उद्देश, इस प्रकार अनेक सुन्दर-सुन्दर गुण-दोषों का सरस, सरल एवं विधि की व्याख्या प्रारंभ करते हैं । वह द्वार - विधि निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, अनुमत, किम्, कतिविधि, कस्य, कुत्र, केषु कथम्, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन, निरुक्ति १. गा० १३८५-८. ४. गा० १४१९-१४२२. Jain Education International लक्षण, नय, समवतार, कियच्चिर, कति, सान्तर, २. गा० १३८९-१४०९. ५. गा० १४४६ - १४८२. For Private & Personal Use Only ३. गा० १४१०-८. ६. गा० १४८४-५. www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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