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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सामायिक-प्राप्ति के स्वरूप का विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए पल्लकादि नौ प्रकार के दृष्टान्त दिए गए हैं। सम्यक्त्वलाभ के बाद देशविरति आदि का लाभ कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जितनी कर्मस्थिति के रहते हुए सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, उसमें से पल्योपमपृथक्त्व का क्षय होने पर देशविरति-श्रावकत्व की प्राप्ति होती है। उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर चारित्र की प्राप्ति होती है। उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर उपशमश्रेणी की प्राप्ति होती है। उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर क्षपकश्रेणी का लाभ होता है । सामायिक के बाधक कारण :
कषायादि के उदय से दर्शनादिसामायिक प्राप्त नहीं होती अथवा प्राप्त होकर पुनः नष्ट हो जाती है । जिसके कारण प्राणी परस्पर हिंसा करते हैं ( कर्षन्ति ) उसे कषाय कहते हैं; अथवा जिसके कारण प्राणी शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से घिसते रहते हैं । कृष्यन्ते ) उसे कषाय कहते हैं; अथवा जिससे 'कष' अर्थात् कर्म का 'आय' अर्थात् लाभ होता है उसे कषाय कहते हैं; अथवा जिससे प्राणी 'कष' अर्थात् कर्म को 'आयन्ति' अर्थात् प्राप्त होते हैं उसे कषाय कहते हैं; अथवा जो 'कष' ( कर्म ) का 'आय' अर्थात् उपादान ( हेतु ) है वह कषाय है । कषाय मुख्यरूप से चार प्रकार के हैं : क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें से किस कषाय की उत्कृष्टता अथवा मंदता से किस प्रकार के चारित्रादि का घात होता है, इसका भाष्यकार ने विस्तार से वर्णन किया है । चारित्र-प्राप्ति :
अनन्तानुबन्धी आदि बारह प्रकार के कषायों का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होने पर मनो-वाक्-कायरूप प्रशस्त हेतुओं से चारित्र-लाभ होता है । चारित्र पांच प्रकार का है : सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात । प्रस्तुत में नियम यह है कि बारह कषायों के क्षयादि से चारित्र का लाभ होता ही है नकि पांचों ही प्रकार के चारित्र का ( गा० १२५८)ऐसा स्पष्टीकरण भाष्यकार ने किया है ।
सामान्यरूप से सभी प्रकार का चारित्र सामायिक ही है । छेदादि उसकी विशेष प्रकार की अवस्थाएं हैं। सामायिक का अर्थ है सावध योग का त्याग । वह दो प्रकार का है : इत्वर तथा यावत्कथिक । इत्वर स्वल्पकालीन है तथा यावत्कथिक जीवनपर्यन्त के लिए है। जिससे चारित्र के पूर्वपर्याय का १. गा० ११९३-१२२१. २. गा० १२२२. ३. गा० १२२४-१२५३. ४. गा० १२५४-१२६१. ५. गा० १२६२-७
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