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________________ १०० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जीवप्रयोगकरण पुनः दो प्रकार का है : मूलकरण और उत्तरकरण । पाँच प्रकार के शरीर और तीन प्रकार के अंगोपांग मूलकरण हैं। कर्ण, स्कंध आदि. उत्तरकरण हैं।' अजीवप्रयोगकरण वर्णादि भेद से पांच प्रकार का होता है। इसीप्रकार क्षेत्रकरण और कालकरण का विवेचन किया गया है । भावकरण जीवकरण और अजीवकरण के भेद से दो प्रकार का है। इनमें से अजीवकरण पुनः पाँच प्रकार का है : वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और संस्थान । ये क्रमशः पाँच, पाँच, दो, आठ और पाँच प्रकार के हैं। जीवकरण दो प्रकार का है : श्रुतकरण और नोश्रुतकरण । श्रुतकरण बद्ध और अबद्ध रूप से दो प्रकार का है। बद्ध के पुनः दो भेद हैं : निशीथ और अनिशीथ । नोश्रुतकरण दो प्रकार का है : गुणकरण और योजनाकरण । गुणकरण तप-संयम-योगरूप है और योजना करण मन, वचन और काय विषयरूप है। इतना विस्तारपूर्वक करण का विचार करने के बाद नियुक्तिकार अपने अभीष्ट अर्थ की योजना करते हैं। कार्मण देह के निमित्त होने वाला आयुःकरण असंस्कृत है। उसे टूटने पर पटादि की भांति उत्तरकरण से सांधा नहीं जा सकता । प्रस्तुत अधिकार आयुःकर्म से असंस्कृत का है। चूंकि आयुःकर्म असंस्कृत है इसलिए हमेशा अप्रमादपूर्वक आचरण करना चाहिए।" आगे के अध्ययनों की नियुक्ति में भी इसी भांति प्रत्येक अध्ययन के नाम का नामादि निक्षेपों से विचार किया गया है। गाथा २०८ में 'काम' और 'मरण' का निक्षेप है। गा० २३७ में 'निर्ग्रन्थ' शब्द का निक्षेप-पद्धति से विवेचन है । गा० २४४ में उरभ्र, गा० २५० में कपिल, गा० २६० में नमि, गा० २८० में द्रुम, गा० ३१० में बहु, श्रुत और पूजा, गा० ४५५ में प्रवचन, गा० ४८० में साम, गा० ४९६ में मोक्ष, गा० ५१४ में चरण और गा० ५१६ में विधि का निक्षेपपूर्वक व्याख्यान किया गया है । २१२ से २३५ तक की गाथाओं में सत्रह प्रकार की मृत्यु का विचार किया गया है । ३. गा० १९६-२००० १. गा० १८२-१९१. ४. गा० २०१-४. २.गा० १९५. ५. गा० २०५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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