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________________ चतुर्थ प्रकरण उत्तराध्ययननियुक्ति इस नियुक्ति में ६०७ गाथाएं हैं। अन्य नियुक्तियों की तरह इसमें भी अनेक पारिभाषिक शब्दों का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया है। इसी प्रकार अनेक शब्दों के विविध पर्याय भी दिये गए हैं। सर्वप्रथम आचार्य 'उत्तराध्ययन' शब्द की व्याख्या करते हुए 'उत्तर' पद का पन्द्रह प्रकार के निक्षेपों से विचार करते हैं : १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. दिशा, ६, तापक्षेत्र, ७. प्रज्ञापक, ८. प्रति, ९. काल, १०. संचय, ११. प्रधान, १२. ज्ञान, १३. क्रम, १४. गणना और १५. भाव । २ 'उत्तराध्ययन' में 'उत्तर' का अर्थ क्रमोत्तर समझना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् जिनेन्द्र ने छत्तीस अध्ययनों का उपदेश. दिया है।" 'अध्ययन' पद का निक्षेपपूर्वक व्याख्यान करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार द्वारों से 'अध्ययन' का विचार हो सकता है। भावाध्ययन की व्याख्या इस प्रकार है : प्रारब्द्ध तथा बध्यमान कर्मों के अभाव से आत्मा का जो अपने स्वभाव में आनयन अर्थात् ले जाना है वही अध्ययन है। जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम अर्थात् परिच्छेद होता है अथवा जिससे अधिक नयन अर्थात् विशेष प्राप्ति होती है अथवा जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है वही अध्ययन है। चूंकि अध्ययन से अनेक भवों से आते हुए अष्ट प्रकार के कर्मरज का क्षय होता है इसीलिए उसे भावाध्ययन कहते हैं। यहाँ तक 'उत्तराध्ययन' का व्याख्यान है। इसके बाद आचार्य 'श्रुतस्कन्ध' का निक्षेप करते हैं क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र श्रुतस्कन्ध है। तदनन्तर छत्तीस अध्ययनों के नाम गिनाते हैं। तथा उनके विविध अधिकारों का निर्देश करते हैं। यहाँ तक संक्षेप में उत्तराध्ययन का पिण्डार्थ १. शान्तिसूरिकृत शिष्यहिता-टीकासहित-देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, १९१९-१९२७. २. गा० १. ३. गा० ३. ४. गा० ४. ५. गा० ५-७. ६. गा० ११ ७. गा० १२-२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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