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अंगबाह्य आगमों के प्रथम वर्ग उपांग में निम्नलिखित बारह ग्रन्थ समाविष्ट हैं : १. औपपातिक, २. राजप्रश्नीय, ३. जीवाजीवाभिगम, ४. प्रज्ञापना, ५. सूर्यप्रज्ञप्ति, ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८. निरयावलिका अथवा कल्पिका, ९. कल्पावतंसिका, १०. पुष्पिका, ११. पुष्पचूलिका, १२. वृष्णिदशा। इनमें से प्रज्ञापना का रचनाकाल निश्चित है। इसकी रचना श्यामार्य ने वि० पू० १३५ से ९४ के बीच किसी समय की। श्यामार्य का दूसरा नाम कालकाचार्य (निगोदव्याख्याता ) है। इन्हें वीरनिर्वाण संवत् ३३५ में युगप्रधान पद मिला तथा वी० सं० ३७६ तक उस पद पर रहे। शेष उपांगों के रचयिता के नाम आदि का कोई पता नहीं । सामान्यतः इनका रचनाकाल विक्रम संवत् के बाद का नहीं हो सकता ।
मूलसूत्र चार हैं : १. उत्तराध्ययन, २. आवश्यक, ३. दशवकालिक, ४. पिण्डनियुक्ति अथवा ओघनियुक्ति । इनमें से दशवकालिक आचार्य शय्यम्भव की कृति है । इन्हें युगप्रधान पद वी० सं० ७५ में मिला तथा वी० सं० ९८ तक उस पद पर रहे। अतः दशवैकालिक की रचना वि० पू० ३९५ और ३७२ के बीच किसी समय हुई है। उत्तराध्ययन किसी एक आचार्य अथवा एक काल की कृति नहीं है फिर भी उसे वि० पू० दुसरी-तीसरी शती का ग्रन्थ मानने में कोई बाधा नहीं है । आवश्यक साधुओं के नित्य उपयोग में आनेवाला सूत्र है अतः इसकी रचना पर्याप्त प्राचीन होनी चाहिए | पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति के रचयिता आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय ) हैं। इनका समय विक्रम की पाँचवीं-छठी शती है।
छेदसूत्र छः हैं : १. दशाश्रुतस्कन्ध, २. वृहत्कल्प, ३. व्यवहार, ४. निशीथ, ५. महानिशीथ, ६. जीतकल्प अथवा पंचकल्प। इनमें से दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु. (प्रथम) की कृतियाँ हैं। इनका रचनाकाल वी० सं० १७० अर्थात् वि० पू० ३०० के आसपास है। निशीथ के प्रणेता आर्य भद्रबाहु अथवा विशाखगणि महत्तर हैं। यह सूत्र वस्तुतः आचारांग की पंचम चूलिका है जिसे किसी समय आचारांग से पृथक कर दिया गया । महानिशीथ के उपलब्ध संकलन का श्रेय आचार्य हरिभद्र को है। जीतकल्प आचार्य
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