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________________ द्वितीय प्रकरण राजप्रश्नीय ennnnnnnnnnnnnnnno रायपसेणइय ( राजप्रश्नीय ) जैन आगमों का दूसरा महत्त्वपूर्ण उपांग है। इसमें २१७ सूत्र हैं। पहले भाग में सूरियाभ देव महावीर के समक्ष उपस्थित होकर नृत्य करता है और विविध नाटक रचाता है। यहाँ उसके विमान (प्रासाद ) के विस्तार का विस्तृत वर्णन किया गया है। दूसरे भाग में पार्श्वनाथ के प्रमुख शिष्य केशीकुमार और श्रावस्ती के राजा प्रदेशी के जीव १. (अ) मलयगिरिकृत टीकासहित-धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८८०; आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२५, गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, वि० सं० १९९४. (आ) हिन्दी अनुवादसहित-अमोलकऋषि, हैदराबाद, वी० सं० २४४५, (इ) संस्कृत व्याख्या व उसके हिन्दी-गुजराती अनुवाद के साथ-मुनि घासीलाल, जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, सन् १९६५. (ई) गुजराती अनुवाद-बेचरदास जीवराज दोशी, लाधाजीस्वामी पुस्तकालय, लींबडी, सन् १९३५. नन्दिसूत्र में इसे रायपसेणिय कहा गया है। इस उपांग के टीकाकार मलयगिरि ने रायपसेणीभ नाम स्वीकार किया है जिसका संस्कृत रूप वे राजप्रश्नीयं-राजप्रश्नेषु भवं-करते हैं। तत्त्वार्थवृत्तिकार सिद्धसेनगणि ने इसका राजप्रसेनकीय और मुनिचन्द्रसूरि ने राजप्रसेनजित के रूप में उल्लेख किया है। रायपसेणइय को सूयगड का उपांग सिद्ध करते हुए मलयगिरि ने लिखा है कि सूयगड में जो क्रियावादी, अक्रियावादी आदि पाखण्डियों के भेद गिनाए हैं, उनमें से अक्रियावादियों के मत का भवलम्बन लेकर राजा प्रदेशी ने केशी से प्रश्नोत्तर किए हैं, इसलिए रायपसेणइयं को सूयगड का उपांग मानना चाहिए (पृ० २)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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