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________________ औपपातिक अविरुद्ध-जो देवता, राजा, माता, पिता, पशु आदि की समान भाव से भक्ति करते हों, जैसे वैश्यायनपुत्र' । सबकी विनय करने के कारण ये विनयवादी भी कहे जाते हैं। विरुद्ध-अक्रियावादियों को विरुद्ध कहते हैं। पुण्य-पाप, परलोक आदि में ये विश्वास नहीं करते । वृद्ध-जिन्होंने वृद्ध अवस्था में दीक्षा ग्रहण की हो । श्रावक-धर्मशास्त्र सुनने वाले ब्राह्मण । ये गौतम आदि उक्त साधु सरसों के तेल को छोड़कर नौ रसों-दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मधु, मद्य और मांस का भक्षण नहीं करते ( ३८)। गंगातटवासी वानप्रस्थी तापस : होत्तिय-अग्निहोत्र करने वाले | पोत्तिय-वस्त्रधारी। कोत्तिय-भूमि पर सोने वाले । जण्णई-यज्ञ करने वाले । सढई-श्रद्धाशील । थालई-सब सामान लेकर चलने वाले | हुंबउह-कुण्डी लेकर चलने वाले । दंतुक्खलिय-दाँतों से चबाकर खाने वाले । उम्मजक-उन्मजन मात्र से स्नान करने वाले । सम्मजक-अनेक बार उन्मजन करके स्नान करने वाले । निमजक-स्नान करते समय क्षणभर जल में निमग्न रहने वाले । संपक्खाल-शरीर पर मिट्टी लगाकर स्नान करने वाले। 1. जब महावीर विहार करते-करते गोशाल के साथ कुम्मगाम में आये तो वहीं वेसायण अपने हाथों को ऊँचा उठाये, प्राणामा प्रव्रज्यापूर्वक तप कर रहा था। इस तप के अनुसार साधु, राजा, हाथी, घोड़ा, कौआ आदि जिस किसी को भी देखता उसी को नमस्कार करता था (आवश्यकनियुक्ति ४९४; आवश्यकचूर्णि, पृ० २९८)। ताम्रलिप्ति के मौर्यपुत्र तामलि ने भी प्राणामा प्रव्रज्या ग्रहण की थी (भगवतीसूत्र ३, १)। अंगुत्तरनिकाय (३, पृ० २७६ ) में अविरुद्धकों का उल्लेख मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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