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________________ षष्ठ प्रकरण संस्तारक संथारग—संस्तारक' प्रकीर्णक में १२३ गाथाएँ हैं । इसमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य संस्तारक अर्थात् तृण आदि की शय्या का महत्त्व वर्णित है । संस्तारक पर आसीन होकर पंडितमरण प्राप्त करने वाला मुनि मुक्ति का वरण करता है । इस प्रकार के अनेक मुनियों के दृष्टान्त प्रस्तुत प्रकीर्णक में दिये गये हैं। प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने वर्धमान जिनवर को नमस्कार किया है । तदनन्तर संस्तारक की गरिमा गाई है : काऊण नमुक्कारं जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । संथारंभि निबद्धं गुणपरिवाडि निसामेह ॥ १ ॥ जिस प्रकार पर्वतों में मेरु, समुद्रों में स्वयम्भूरमण एवं तारों में चन्द्र श्रेष्ठ ' है उसी प्रकार सुविहितों में संस्तारक सर्वोत्तम है : मेरु व्व पव्वयाणं सयंभुरमणु व्व चेव उदहीणं । चंदो इव ताराणं तह संथारो सुविहिआणं ।। ३० ।। आचार्य ने संस्तारक पर आरूढ होकर पंडितमरणपूर्वक मुक्ति प्राप्त करने वाले अनेक मुनियों के उदाहरण दिये हैं । इनमें से कुछ के नाम ये हैं : अर्णिका पुत्र, सुकोशलर्षि, अवन्ति, कार्तिकार्य, चाणक्य, अमृतघोष, चिलातिपुत्र, गजसुकुमाल | अन्त में आचार्य ने संस्तारकरूपी गजेन्द्रस्कन्ध पर आरूढ सुश्रमणरूपी नरेन्द्रचंद्रों से सुखसंक्रमण की याचना की है : एवं मए अभिथुआ संथारगइंदखं धमारूढा । सुसमणनरिंदचंदा सुहसंकमणं सया दिंतु ॥ १२३ ॥ exe १. जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि० सं० १९६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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