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________________ प्रथम प्रकरण चतुःशरण प्रकीर्णक अर्थात् विविध । भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रकीर्णको-विविध आगमिक ग्रन्थों की संख्या १४००० कही गई है। वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या मुख्यतया १० मानी जाती है । इन दस नामों में भी एकरूपता नहीं है।' निम्नलिखित दस नाम विशेष रूप से मान्य हैं : १. चतुःशरण, २. आतुरप्रत्याख्यान, ३. महाप्रत्याख्यान, ४. भक्तपरिज्ञा, ५. तन्दुलवैचारिक, ६. संस्तारक, ७. गच्छाचार, ८. गणिविद्या, ९. देवेन्द्रस्तव, १०. मरणसमाधि । कोई मरणसमाधि और गच्छाचारके स्थान पर चन्द्रवेध्यक और वीरस्तव को गिनते हैं तो कोई देवेन्द्र स्तव और वीरस्तव को मिला देते हैं तथा संस्तारक को नहीं गिनते किन्तु इनके स्थान पर गच्छाचार और मरणसमाधि का उल्लेख करते हैं। __चउसरण-चतुःशरण का दूसरा नाम कुशलानुबंधि अध्ययन ( कुसलाणुबंधि-अज्झयण ) है। इसमें ६३ गाथाएँ हैं। चूंकि इसमें अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवलिकथित धर्म-इन चार को शरण माना गया है इसलिए इसे चतुःशरण कहा गया है। प्रारम्भ में षडावश्यक की चर्चा है। तदनन्तर आचार्य ने कुशलानुबंधिअध्ययन की रचना का संकल्प किया है तथा चतुःशरण को कुशलहेतु बताते हुए चार शरणों का नामोल्लेख किया है : १. देखिए-जैन ग्रंथावलि, पृ० ७२ (जैन श्वेताम्बर कॉन्फरेन्स, बम्बई, वि० सं० १९६५). २. भागमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२७, रायबहादुर धनपत सिंह, बनारस, सन् १८८६ (गच्छाचार के स्थान पर चन्द्रवेध्यक) ३. (अ) बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, वि० सं० १९६२. (भा) जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि० सं० १९६६. (इ) देवचन्द लालभाई जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, सन् १९२२ (सावचूरिक). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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