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वृहत्कल्प - भिक्षाचर्या में अनजाने अनेषणीय स्निग्ध अशनादि ले लिया गया हो तो उसे अनुपस्थापित-श्रमण (अनारोपितमहाव्रत ) को दे देना चाहिए। यदि वैसा श्रमण न हो तो उसकी निर्दोष भूमि में परिष्ठापना कर देनी चाहिए।'
___ कल्पस्थित अर्थात् आचेलक्यादि दस प्रकार के कल्प में स्थित श्रमणों के लिए बनाया हुआ आहार आदि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्प्य है, कल्पस्थित श्रमणों के लिए नहीं। जो आहार आदि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए बनाया गया हो वह कल्पस्थित श्रमों के लिए अकल्प्य होता है किन्तु अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्प्य होता है। कल्पस्थित का अर्थ है पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नपंचयामिक एवं अकल्पस्थित का अर्थ है चतुर्यामधर्मप्रतिपन्न-चातुर्यामिक ।
किसी निर्ग्रन्थ को शानादि के कारण अन्य गण में उपसंपदा लेनी हो-दूसरे समुदाय के साथ विचरना हो तो आचार्य आदि की अनुमति लेना अनिवार्य है। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि को भी अपने समुदाय की आवश्यक व्यवस्था करके ही अन्य गण में सम्मिलित होना चाहिए । __ संध्या के समय अथवा रात में कोई साधु अथवा साध्वी मर जाए तो दूसरे साधुओं अथवा साध्वियों को उस मृत शरीर को रात भर ठीक तरह रखना चाहिए। प्रातःकाल गृहस्थ के यहाँ से बाँस आदि लाकर मृतक को बाँध कर जंगल में निर्दोष भूमि देख कर प्रतिष्ठापित कर देना चाहिए-त्याग देना चाहिए एवं बाँस आदि वापिस गृहस्थ को सौंप देने चाहिए।
भिक्षु ने गृहस्थ के साथ अधिकरण-झगड़ा किया हो तो उसे शान्त किये बिना भिक्षु को भिक्षाचर्या आदि करना अकल्प्य है।'
परिहारकल्प में स्थित भिक्षु को आचार्य-उपाध्याय इन्द्रमह आदि उत्सव के दिन विपुल भक्त-पानादि दिला सकते हैं। तदुपरान्त वैसा नहीं कर सकते । जहाँ तक उसकी वैयावृत्य-सेवा का प्रश्न है, किसी भी प्रकार की सेवा की-कराई जा सकती है।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को निम्नोक्त पाँच महानदियाँ महीने में एक से अधिक बार पार नहीं करनी चाहिए : गंगा, यमुना, सरयू , कोशिका और मही । ऐरावती आदि छिछली नदियाँ महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं।"
१. उ० ४, सू० १८. २. उ० ४, सू० १९. ३. उ० ४, सू० २०-८. ४. उ० ४, सू० २९. ५. उ. ४, सू० ३०. ६. उ० ४, सू० ३१. ७. उ० ४, सू० ३२-३ (ऐरावती नदी कुणाला नगरी के पास है).
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