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________________ द्वितीय प्रकरण बृहत्कल्प mamannannnnnnn बृहत्कल्प सूत्र' का छेदसूत्रों में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसमें कोई सन्देह नहीं। अन्य छेदसूत्रों की भाँति इसमें भी साधुओं के आचारविषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद, तप-प्रायश्चित्त आदि का विचार किया गया है। इसमें छः उद्देश हैं जो सभी गद्य में हैं। इसका ग्रन्थमान ४७५ श्लोक-प्रमाण है। प्रथम उद्देश : प्रथम उद्देश में पचास सूत्र हैं। प्रथम पाँच सूत्र तालप्रलम्बविषयक हैं। प्रथम ताल-प्रलम्बविषयक सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए ताल एवं प्रलम्ब ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसमें बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रथियों के लिए अभिन्न अर्थात् अविदारित, आम अर्थात् अपक्क, ताल अर्थात् तालफल तथा प्रलम्ब अर्थात् मूल का प्रतिग्रहण अर्थात् आदान, अकल्प्य अर्थात् निषिद्ध है (नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए)। श्रमण-श्रमणियों को अखण्ड एवं अपक्व तालफल तथा तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए। द्वितीय सूत्र में बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्र१. (अ) जर्मन टिप्पणी आदि के साथ-W. Schubring, Leipzig, 1905; मूलमात्र नागरी लिपि में-Poona, 1923. (मा) गुजराती अनुवादसहित-डा. जीवराज घेलाभाई दोशी, अहमदा बाद, सन् १९१५. (इ) हिन्दी अनुवाद ( अमोलकऋषिकृत ) सहित-सुखदेवसहाय ___ ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद, वी० सं० २४४५. ... (ई) अज्ञात टीकासहित-सम्यक् ज्ञान प्रचारक मंडल, जोधपुर. (उ) नियुक्ति, लघुभाष्य तथा मलयगिरि-क्षेमकीर्तिकृत टीकासहित जैन भात्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३३-४२, २. हिन्दी एवं गुजराती अनुवादों में इस सूत्र का अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता। इनमें ताल का अर्थ केला एवं प्रलम्ब का अर्थ लम्बी भाकृति वाला किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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