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________________ २२८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अपने पूर्वोक्त चौदह त्रिशला का चौदह १२. देवविमान, १३. रत्नराशि, १४. अग्नि ), ऋषभदत्त द्वारा स्वप्नफल पर प्रकाश डालना, इन्द्र का स्वर्ग में बैठे-बैठे देवानन्दा की कुक्षि में अवतरित भगवान् को वंदन करना, इन्द्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न होना कि अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव ब्राह्मण आदि कुलों में पैदा न होकर क्षत्रिय वंश में उत्पन्न होते हैं किन्तु भगवान् महावीर ब्राह्मणी के गर्भ में आये हैं, यह एक आश्चर्य है अतः मुझे इसका कुछ उपाय करना चाहिए, इन्द्र का हरिणेगमेसि नामक देव को गर्भ परिवर्तन का आदेश, हरिणेगमेसि द्वारा आश्विन कृष्णा त्रयोदशी की आधी रात के समय हस्तोत्तरा नक्षत्र में शक्र के आदेशानुसार देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि से भगवान् को निकाल कर क्षत्रियकुंड ग्राम के ज्ञातृवंश के काश्यपगोत्रीय क्षत्रिय सिद्धार्थ की भार्या वासिष्ठगोत्रीय त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में बिना किसी पीड़ा के स्थापित करना एवं त्रिशला के गर्भ को देवानन्दा की कुक्षि में पहुँचाना ( यह घटना प्रथम गर्भ के ८२ दिन के बाद की है), देवानन्दा द्वारा स्वप्नावस्था में स्वप्नों का त्रिशला द्वारा हरण किया जाता हुआ देखना, महास्वप्न देखकर जाग जाना, सिद्धार्थ द्वारा स्वप्नपाठकों के समक्ष चौदह स्वप्नों का विवरण प्रस्तुत करना एवं उनका फल सुनना, सिद्धार्थ के कोश में धन की असाधारण वृद्धि होना, इसी वृद्धि को दृष्टि में रखते हुए अपने आगामी पुत्र का नाम वर्धमान रखने का संकल्प करना, महावीर का गर्भावस्था में कुछ समय के लिए हलन चलन बन्द करना एवं इससे घर में शोक छा जाना, माता-पिता के स्नेह के वश महावीर का माता-पिता के जीवित रहते गृहत्याग न करने का निश्चय - अभिग्रह, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की लगभग मध्यरात्रि के समय हस्तोत्तरा नक्षत्र में त्रिशला की कुक्षि से पुत्र का जन्म होना ( प्रथम गर्भ की तिथि से नव मास साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर महावीर का जन्म हुआ ), देवों एवं मनुष्यों द्वारा विविध उत्सव करना, पुत्र का वर्धमान नाम रखना, वर्धमान का विवाह, अपत्य आदि अवस्थाओं से गुजरना, हस्तोत्तरा नक्षत्र का योग आने पर एक देवदूष्य (वस्त्र) लेकर अकेले ही प्रत्रजित होना, तेरह मास तक वर्धमान का सचेलक -- सवस्त्र रहना एवं तदुपरान्त अचेलक - दिगम्बर - करपात्री - नग्न होना (संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी होत्या, तेण परं अचेले पाणिपडिग्गहए ), बारह वर्ष तपस्या आदि में व्यतीत होने पर वैशाख शुक्ला १. गय-वसह सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणय रं झयं-कुंभं । पउमसर-सागर - विमाण-भवण-रयणुञ्चय-सिहिं च ॥ - सू० ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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