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________________ दशवैकालिक १९१ रूपमद नहीं करता, लाभमद नहीं करता और न अपने ज्ञान का ही मद करता है, सब मदों को त्यागकर जो धर्मध्यान में लीन रहता है वह भिक्षु है ( १९)। पहली चूलिका-रतिवाक्य : जैसे लगाम से चंचल घोड़ा वश में आ जाता है, अंकुश से मदोन्मत्त हाथी वश में आ जाता है, समुद्र में गोते खाती हुई नाव ठीक मार्ग पर आ जाती है, उसी प्रकार अठारह स्थनों का विचार करने से चञ्चल मन स्थिर हो जाता है। (१-१८)। जैसे गले में काँटा फँस जाने के कारण मछली पश्चात्ताप को प्राप्त होती है उसी प्रकार यौवन बीत जाने पर जब साधु वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है तो वह पश्चात्ताप करता है (६)। मेरा यह दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा, जीव की विषय-वासना अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर में शक्ति रहते हुए नष्ट न होगी तो मृत्यु आने पर तो अवश्य ही नष्ट हो जायगी (१६)। दूसरी चूलिका-विविक्तचर्या : - साधु को मद्य-मांस आदि का सेवन न करना चाहिए, किसी से ईर्ष्या न करनी चाहिए, सदा विकृतियों (विकारजनक घृत आदि वस्तु) का त्याग करना चाहिए, पुनः-पुनः कायोत्सर्ग करना चाहिए और स्वाध्याय योग में सदा रत रहना चाहिए (७)। रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में अपनी आत्मा का अपनी आत्मा द्वारा सम्यक् प्रकार से परीक्षण करना चाहिए। उस समय विचार करना चाहिए कि मैंने क्या किया है, मुझे क्या करना बाकी है और ऐसा कौनसा कार्य है जो मेरी सामर्थ्य के बाहर है (९)। १. उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम और विषय आदि भी यही हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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