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दशवैकालिक
माया को आर्जव से और लोभ को संतोष से जीते ( ३९ ) । जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर और शरीर को संकुचित कर मन, वचन और काया से सावधान होकर गुरुः के समीप बैठे ( ४५ ) । उसे चाहिये कि वह बिना पूछे हुए न बोले, गुरु के बातचीत करते हुए बीच में न बोले, पीठ पीछे चुगली न करे तथा माया और मृषा का त्याग करे (४७) । नक्षत्र, स्वप्न, योग, निमित्त, मन्त्र और भैषज - ये प्राणियों के अधिकरण के स्थान हैं इसलिए गृहस्थ के सम्मुख इनका प्ररूपण न करे ( ५१ ) | जैसे मुर्गी के बच्चे को बिल्ली से सदा भय रहता है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्रियों शरीर से भयभीत रहना चाहिए ( ५४ ) । स्त्री के चित्रों द्वारा लिखित भित्ति को अथवा अलंकृत नारी को देखकर उसका चिन्तन न करे। यदि उस ओर दृष्टि भी चली जाय तो जिस प्रकार सूर्य को देखकर लोग दृष्टि को संकुचित कर लेते हैं, वैसे ही भिक्षु भी अपनी दृष्टि को संकुचित कर ले (५५) । जिसके हाथ-पाँव और नाक-कान कटे हुए हों अथवा जो सौ वर्ष की वृद्धा हो ऐसी नारी से भी भिक्षु को दूर ही रहना चाहिए ( ५६ ) । विनय-समाधि-- पहला उद्देश :
जो गुरु को मन्दबुद्धि, बालक अथवा अल्पश्रुत समझकर उनकी अवहेलना करते हैं. वे मिथ्यात्व को प्राप्त होकर गुरुजनों की आशातना करते हैं ( २ ) 1 यदि आशीविष सर्प क्रुद्ध हो जाये तो प्राणों के नाश से अधिक और कुछ नहीं कर सकता, किन्तु यदि आचार्यपाद अप्रसन्न हो जायें तो अबोधि के कारण जीव: को मोक्ष की प्राप्ति ही नहीं होती ( ५ ) । जो गुरुओं की आशातना करता है वह उस पुरुष के समान है जो जलती हुई अग्नि को अपने पैरों से कुचल कर बुझाना चाहता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है अथवा जो जीने की इच्छा के लिए हलाहल विष का पान करता है ( ६ ) । जिस गुरु के समीप धर्मपद आदि की शिक्षा प्राप्त की है उसको सदा विनय करे, और सिर पर अञ्जलि धारण कर मन, वचन और काय से उसका सत्कार करे ( १२ ) । जैसे नक्षत्र और तारागण से कार्तिकी पूर्णमासी का चन्द्रमा मेघरहित आकाश में शोभा को प्राप्त होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं के बीच में आचार्य ( गणी ) शोभित होता है ( १५ ) ।
विनय-समाधि— दूसरा उद्देश :
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धर्म का मूल विनय है और उसका सर्वोत्कृष्ट फल मोक्ष है ( २ ) । जैसे जल के प्रवाह में पड़ा हुआ काष्ठ इधर-उधर गोते खाता है, वैसे ही क्रोधी, अभिमानी,
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