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________________ जेन श्रुत ७१ के गुरुरूप भगवान् महावीर ने जब इन्द्रभूति ( गौतम ) आदि के साथ आत्मा आदि के सम्बन्ध में चर्चा की तब वेद के पदों का अर्थ किस प्रकार करना चाहिए, यह उन्हें समझाया । वेद मिथ्या हैं, ऐसा उन्होंने नहीं कहा । यह घटना विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद नामक प्रकरण में आज भी उपलब्ध है । भगवान् को इस प्रकार की समझाने की शैली-सम्यग्दृष्टिसम्पन्न का श्रुत सम्यकश्रुत है व सम्यग्दृष्टिहीन का श्रुत मिथ्याश्रुत है-इस तथ्य का समर्थन करती है । आचार्य हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में लिखते हैं : चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः । यस्मात् एते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ।। -श्लो० १३२ एतेषां सर्वज्ञानां कपिलसुगतादीनाम्, स्यात् भवेत्, विनेयानुगुण्यतः तथाविधशिष्यानुगुण्येन कालान्तरापापभीरुम् अधिकृत्य उपसर्जनीकृतपर्याया द्रव्यप्रधाना नित्यदेशना, भोगावस्थावतस्तु अधिकृत्य उपसर्जनीकृतद्रव्या पर्यायप्रधाना अनित्यदेशना। न तु ते अन्वयव्यतिरेकवद्वस्तूवेदिनो न भवन्ति सर्वज्ञत्वानुपपत्तेः । एवं देशना तु तथागुणदर्शनेन (तद्गुणदर्शनेन) अदृष्टैव इत्याह-यस्मात् एते महात्मानः सर्वज्ञाः । किम् ? इत्याह-भवव्याधिभिषग्वराः संसारव्याधिवैद्यप्रधानाः । अर्थात् कपिल, सुगत आदि महापुरुष सम्यग्दृष्टिसम्पन्न सर्वज्ञपुरुष हैं। ये सब प्रपंच-रोगरूप संसार की विषम व्याधि के लिये श्रेष्ठ वैद्य के समान हैं। इसी प्रकार उन्होंने एक जगह यह भी लिखा है : सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो वा तह य अन्नो वा । समभावभाविअप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ।। अर्थात् चाहे कोई श्वेताम्बर सम्प्रदाय का हो, चाहे दिगम्बर सम्प्रदाय का, चाहे कोई बौद्ध सम्प्रदाय का हो, चाहे किसी अन्य सम्प्रदाय का किन्तु जिसकी आत्मा समभावभावित है वह अवश्य मुक्त होगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । उपाध्याय यशोविजयजी तथा महात्मा आनन्दघन जैसे साधक पुरुषों ने सम्यग्दृष्टि की उक्त व्याख्या का ही समर्थन किया है। आत्मशुद्धि की दृष्टि से सम्यक्श्रुत की यही व्याख्या विशेष रूप से आराधना की ओर ले जानेवाली है । नंदिसूत्रकार ने यह बताया है कि तीर्थंकरोपदिष्ट आचारांगादि बारह अंग भी सम्यग्दष्टिसम्पन्न व्यक्तियों के लिए ही सम्यकश्रुतरूप हैं। जो सम्यग्दृष्टि रहित हैं उनके लिए वे मिथ्याश्रुतरूप हैं। साथ ही उन्होंने यह भी बताया है कि सांगोपांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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