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________________ ६४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है । शास्त्रों के अतिरिक्त 'श्रुत' शब्द में लिपियाँ भी समाविष्ट हैं । 'श्रुत' के जितने भी कारण अर्थात् निमित्तकारण हैं, वे सब 'श्रुत' में समाविष्ट होते हैं । ज्ञानरूप कोई भी विचार भावश्रुत कहलाता है । यह केवल आत्मगुण होने के कारण सदा अमूर्त्त होता है । विचार को प्रकाशित करने का निमित्त कारण शब्द है अतः वह भी निमित्त - नैमित्तिक के कथंचित् अभेद की अपेक्षा से 'श्रुत' कहलाता है । शब्द मूर्त्त होता है । उसे जैन परिभाषा में 'द्रव्यश्रुत' कहते हैं । शब्द की ही भाँति भावत को सुरक्षित एवं स्थायी रखने के जो भी निमित्त अर्थात् कारण हैं वे सभी 'द्रव्यश्रुत' कहलाते हैं । इनमें समस्त लिपियों का समावेश होता है । इनके अतिरिक्त कागज, स्याही, लेखनी आदि भी परम्परा की अपेक्षा से 'श्रुत' कहे जा सकते हैं । यही कारण है कि ज्ञानपंचमी अथवा श्रुतपंचमी के दिन सब जैन सामूहिक रूप से एकत्र होकर इन साधनों का तथा समस्त प्रकार की जैन पुस्तकों का विशाल प्रदर्शन करते हैं एवं उत्सव मनाने हैं । देव प्रतिमा के समान इनके पास घृत- दीपक जलाते हैं एवं वंदन, नमन, पूजन आदि करते हैं । प्रत्येक शब्द, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो- व्यक्त हो अथवा अव्यक्त - 'द्रव्य श्रुत' में समाविष्ट होता है । प्रत्येक भावसूचक संकेत - जैसे छींक, खंखार आदि का भी व्यक्त शब्द के ही समान द्रव्यश्रुत में समावेश होता है । द्रव्यश्रुत एवं भावश्रुत के विषय में आचार्य देववाचक ने स्वचरित नन्दिसूत्र में विस्तृत एवं स्पष्ट चर्चा की है । नन्दिसूत्रकार ने ज्ञान के पाँच प्रकार बताये हैं: मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान । जैन परम्परा में 'प्रत्यक्ष' शब्द के दो अर्थ स्वीकृत हैं । पहला अक्ष अर्थात् आत्मा । जो ज्ञान सीधा आत्मा द्वारा ही हो, जिसमें इन्द्रियों अथवा मन की सहायता की आवश्यकता न हो वह ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाता है । दूसरा अक्ष अर्थात् इन्द्रियाँ एवं मन । जो ज्ञान इन्द्रियों एवं मन की सहायता से उत्पन्न हो वह व्यावहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है । उक्त पाँच ज्ञानों में अवधि, मनःपर्याय एवं केवल ये तीन पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं एवं मति व्यावहारिक प्रत्यक्ष है । श्री भद्रबाहुविरचित आवश्यक नियुक्ति, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणरचित विशेषावश्यकभाष्य, श्रीहरिभद्रविरचित आवश्यक - वृत्ति आदि ग्रन्थों में पंचज्ञान विषयक विस्तृत चर्चा की गई है । इसे देखते हुए ज्ञान अथवा प्रमाण के स्वरूप, प्रकार आदि की चर्चा प्रारम्भ में कितनी संक्षिप्त थी तथा घोरे-धीरे कितनी विस्तृत होती गई, इसका स्पष्ट पता लग जाता है । ज्यों-ज्यों तर्कदृष्टि का विकास होता गया त्यों-त्यों इस चर्चा का भी विस्तार होता गया । यहाँ इस लम्बी चर्चा के लिए अवकाश नहीं है । केवल श्रुतज्ञानका परिचय देने के लिए तत्सम्बद्ध प्रासंगिक विषयों का स्पर्श करते हुए आगे बढ़ा जाएगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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