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( ४० ) काल निर्णय के लिए उन्हीं नियमों का उपयोग आवश्यक है जिन नियमों का वैदिक वाङ्मय के काल निर्णय में किया जाता है । अंग-आगम भगवान् महावीर का उपदेश है और उसके आधार पर उनके गणधरों ने अंगों की रचना की है । अतः रचना का प्रारम्भ तो भगवान महावीर के काल से ही माना जा सकता है । उसमें जो प्रक्षेप हों उन्हें अलग कर उनका समय-निर्णय अन्य आधारों से करना चाहिए ।
आगमों में अंगबाह्य ग्रन्थ भी शामिल हुए हैं और वे तो गणधरों की रचना नहीं है। अतः उनका समयनिर्धारण जैसे अन्य आचार्यों के ग्रन्थों का समय निर्धारित किया जाता है वैसे ही होना चाहिए । अंगबाह्यों का सम्बन्ध विविध वाचनाओं से भी नहीं है और संकलन से भी नहीं है। उनमें जिन ग्रन्थों के कर्ता का निश्चित रूप से पता है उनका समय कर्ता के समय से निश्चित होना चाहिए। वाचना, संकलना और लेखन जिन आगमों के हुए उनके साथ जोड़ कर इन अंगबाह्य ग्रन्थों के समय को भी अनिश्चित कोटि में डाल देना अन्याय है और इसमें सचाई भी नहीं है ।
अंगबाह्यों में प्रज्ञापना के कर्ता आर्यश्याम हैं अतएव आर्यश्याम का जो समय है वही उसका रचनासमय है। आर्यश्याम को वीरनिर्वाण संवत् ३३५ में युगप्रधान पद मिला और वे ३७६ तक युगप्रधान रहे। अतएव प्रज्ञापना इसी काल की रचना है, इसमें सन्देह को स्थान नहीं है। प्रज्ञापना आदि से अन्त तक एक व्यवस्थित रचना है जैसे कि षटखण्डागम आदि ग्रन्थ है । तो क्या कारण है कि उसका रचनाकाल वही न माना जाय जो उसके कर्ता का काल है और उसके काल को वलभी के लेखनकाल तक खींचा जाय ? अतएव प्रज्ञापना का रचनाकाल ई० पू० १९२ से ई० पू० १५१ के बीच का निश्चित मानना चाहिए।
चन्द्रप्रज्ञप्ति', सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-ये तीन प्रज्ञप्तियाँ प्राचीन हैं इसमें भी सन्देह को स्थान नहीं है। दिगम्बर परम्परा ने दृष्टिवाद के परिकर्म में इन तीनों प्रज्ञप्तियों का समावेश किया है और दृष्टिवाद के अंश का अविच्छेद भी माना है । तो यही अधिक सम्भव है कि ये तीनों प्रज्ञप्तियाँ विच्छिन्म न हुई हों। इनका उल्लेख श्वेताम्बरों के नन्दी आदि में भी मिलता है। अतएव यह तो माना ही जा सकता है कि इन तीनों की रचना श्वेताम्बर-दिगम्बर के मतभेद के पूर्व हो चुकी थी। इस दृष्टि से इनका रचनासमय विक्रम के प्रारम्भ से इधर नहीं आ सकता। दूसरी बात यह है कि सूर्य-चन्द्रप्रज्ञप्ति में जो ज्योतिष की चर्चा है वह
१. साम्प्रतकाल में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दीखता।
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