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का उल्लेख करके 'एवमाइया' लिखा है । इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि प्रकीर्णक में उल्लिखित के अलावा अन्य भी थे । यहाँ यह भी ध्यान देने की बात हैं कि नन्दी और अनुयोगद्वार को साम्प्रतकाल में प्रकीर्णक से पृथक् गिना जाता है किन्तु यहाँ उनका समावेश प्रकीर्णक में है । इस प्रकरण के अन्त में 'बाहिरजोगविहिसमत्तो' ऐसा लिखा है उससे यह भी पता चलता है कि उपांग और प्रकीर्णक दोनों की सामान्य संज्ञा या वर्ग अंगबाह्य था । इसके बाद भगवती की वाचना का प्रसंग उठाया है । यह भगवती का महत्त्व सूचित करता है । भगवती के बाद महानिसीह का उल्लेख है और उसका उल्लेख निसीहादि छेद ग्रंथों के साथ नहीं है— इससे सूचित होता है कि वह बाद की रचना है । मतान्तर देने के बाद अन्त में एक गाथा दी है जिससे सूचना मिलती है कि कौन किस अंग का उपांग हैं—
नायव्वा
"उ० रा० जी० पन्नवणा सू० जं० चं० नि० क० क० पु० पु० वह्निदसनामा । आयाराइ उवंगा आyate ||" - सुखबोधा सामाचारी, पृ० ३४. श्रीचन्द्र के इस विवरण से इतना तो फलित होता है कि उनके समय तक अंग, उपांग, प्रकीर्णक इतने नाम तो निश्चित हो चुके थे । उपांगों में भी कौन ग्रंथ समाविष्ट हैं यह भी निश्चित हो चुका था, जो साम्प्रतकाल में भी वैसा ही प्रकीर्णक वर्ग में नन्दी-अनुयोगद्वार शामिल था जो बाद में जाकर पृथक् हो गया । मूलसंज्ञा किसी की भी नहीं मिलती जो आगे जाकर आवश्यकादि को मिली है ।
जिनप्रभ ने अपने ‘सिद्धान्तागमस्तव' में आगमों का नामपूर्वक स्तवन किया है किन्तु वर्गीकरण नहीं किया । उनका स्तवनक्रम इस प्रकार है— आवश्यक, विशेषावश्यक, दशवैकालिक, ओघनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, नन्दी, अनुयोगद्वार, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, आचारांगे आदि ग्यारह अंग ( इनमें कुछ को अंग संज्ञा दी गई है), औपपातिक आदि १२ ( इनमें किसी को भी उपांग नहीं कहा हैं )
समाधि आदि १३ ( इनमें किसी को भी प्रकीर्णक नहीं कहा है), निशीथ, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, पंचकल्प, जीतकल्प, महानिशीथ - इतने नामों के बाद नियुक्ति आदि टीकाओं का स्तवन है । तदनन्तर दृष्टिवाद और अन्य कालिक, उत्कालिक ग्रन्थों की स्तुति की गई है । तदनन्तर अंगविद्या, विशेषणवती, संमति, नयचक्रवाल, तत्त्वार्थ, ज्योतिष्करण्ड, सिद्धप्राभृत, वसुदेवहिण्डी, कर्मप्रकृति आदि प्रकरण ग्रन्थों का उल्लेख है । इस सूची से एक बात तो सिद्ध होती है कि भले ही जिनप्रभ ने वर्गों के नाम नहीं दिये किन्तु उस समय तक कौन ग्रन्थ किसके साथ उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम तो बन गया होगा । इसीलिए हम मूलसूत्रों और चूलिकासूत्रों के नाम एक साथ ही पाते हैं । यही बात अंग, उपांग, छेद और प्रकीर्णक में भी लागू होती है ।
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