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________________ ज्ञाताधर्मकथा २५५ रक्तपट-रक्तवस्त्रधारी परिव्राजक । यहाँ जो अर्थ दिये गये हैं वे इस कथासूत्र की वृत्ति के अनुसार है। इस विषय में विशेष अनुसंधान की आवश्यकता हो सकती है। दयालु मुनि : सोलहवें 'अवरकंका' नामक अध्ययन में एक ब्राह्मणी द्वारा एक जैन मुनि को कड़वी तुंबी का शाक दिये जाने की घटना है। इसमें ब्राह्मण एवं श्रमण का ‘विरोधी ही काम करता है । इस घटना से स्पष्ट मालूम पड़ता है कि इस विरोध की जड़ें कितनी गहरी हैं। मुनि चींटियों पर दया लाकर उस कडुए शाक को जमीन पर न डालते हुए खुद ही खा जाते हैं एवं परिणामतः मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस अध्ययन में वर्णित पारिष्ठापनिकासमिति का स्वरूप विशेष विचारणीय है। पाण्डव-प्रकरण : प्रस्तुत कथा में सुकुमालिका नामक एक ऐसी कन्या की बात आती है जिसके शरीर का स्पर्श स्वाभाविकतया दाहक था। इसमें एक विवाह करने के बाद दामाद के जीवित होते हुए भी कन्या का दूसरा विवाह करने की पद्धति का उल्लेख है । इसमें द्रौपदी के पांच पति कैसे हुए इसकी विचित्र कथा है। महाभारत में भी व्यास मुनि द्वारा कही हुई इस प्रकार की और दो कथाओं का उल्लेख है । यहाँ नारद का भी उल्लेख है । उसे कलह-कुशल के रूप में चित्रित किया गया है । इसमें लोक-प्रचलित कथा कूपमंडूक का भी दृष्टान्त के रूप में उपयोग किया गया है। पांडव कृष्ण के बल की परीक्षा किस प्रकार करते हैं, इसका एक नमना प्रस्तुत ग्रंथ में मिलता है । कथाकार द्रौपदी का पूर्वभव बतलाते हुए कहते है कि वह अपने पूर्वजन्म में स्वछन्द जैन साध्वी थी तथा कामसंकल्प से घिरी हुई थी। उसे अस्नान के कठोर नियम के प्रति घृणा थी । वह बार-बार अपने हाथ-पैर आदि अंगों को धोया करती तथा बिना पानी छीटे कहीं पर बैठती-सोती न थी। यह साध्वी मरकर द्रौपदी बनो। उसके प्राचीन कामसंकल्प के कारण उसे पांच पति प्राप्त हुए । इस कथा में कृष्ण के नरसिंहरूप का भी उल्लेख है। इससे मालूम पड़ता है कि नरसिंहावतार की कथा कितनी लोकव्यापक हो गई थी। इस कथा में यह भी उल्लेख है कि कृष्ण ने अप्रसन्न होकर पांडवों को देशनिकाला दिया था । पांडवों ने निर्वासित अवस्था में पांडुमथुरा बसाई जो वर्तमान में दक्षिण में मथुरा के नाम से प्रसिद्ध है। इस कथा में शत्रुजय तथा उज्जयन्तगिरनार पर्वत का भी उल्लेख एक साधारण पर्वत की तरह है। शत्रुजय पर्वत हस्तकल्प नगर के पास बताया गया है । वर्तमान 'हाथप' हस्तकल्प का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है । शिलालेखों में इसे 'हस्तवप्र' कहा गया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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