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________________ १७४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है । प्राकृत में भी नाम तो एक ही है किन्तु उच्चारण एवं व्यंजनविकार की विविधता के कारण उसके रूपों में विशेषता आ गई है । अर्थबोधक संक्षिप्त शब्दरचना को 'सूत्र' कहते हैं । इस प्रकार की रचना जिसमें 'कृत' अर्थात् की गई है वह सूत्रकृत है । समवायांग आदि में निर्दिष्ट विषयों अथवा अध्ययनों में से सूत्रकृतांग की उपलब्ध वाचना में स्वमत तथा परमत की चर्चा प्रथम श्रुतस्कन्व में संक्षेप में और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में स्पष्ट रूप से आती है । इसमें जीवविषयक निरूपण भी स्पष्ट है । नवदीक्षितों के लिए उपदेशप्रद बोधवचन भी वर्तमान वाचना में स्पष्ट रूप में उपलब्ध हैं । तीन सौ तिरस्ठ पाखंडमतों की चर्चा के लिए इस सूत्र में एक पूरा अध्ययन ही है । अन्यत्र भी प्रसंगवशात् भूतवादी, स्कन्धवादी, एकात्मवादी, नियतिवादी आदि मतावलम्बियों की चर्चा आती है । जगत् की रचना के विविध वादों की चर्चा तथा मोक्षमार्ग का निरूपण भी प्रस्तुत - वाचना में उपलब्ध है । यत्र-तत्र ज्ञान, आस्रव, पुण्य-पाप आदि विषयों का निरूपण भी इसमें है । कल्प्य अकल्प्य विषयक श्रमणसम्बन्धी आचार-व्यवहार की चर्चा के लिए भी वर्तमान वाचना में अनेक गाथाएँ तथा विशेष प्रकरण उपलब्ध हैं । धर्म एवं क्रिया-स्थान नामक विशेष अध्ययन भी मौजूद हैं । जयधवलोक्त स्त्रीपरिणाम से लेकर पुंस्कामिता तक के सब विषय उपसर्गपरिज्ञा तथा स्त्रीपरिज्ञा नामक अध्ययनों में स्पष्टतया उपलब्ध हैं । इस प्रकार अचेलक तथा सचेलक ग्रन्थों में निर्दिष्ट सूत्रकृतांग के विषय अधिकांशतया वर्तमान वाचना में विद्यमान हैं । यह अवश्य है कि किसी विषय का निरूपण प्रधानतया है तो किसी का गौणतया । सूत्रकृत की रचना : सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का नाम समय है । 'समय' शब्द सिद्धान्त का सूचक है । इस अध्ययन में स्वसिद्धान्त के निरूपण के साथ - ही साथ परमत का भी निरसन की दृष्टि से निरूपण किया गया है। इसका प्रारम्भ 'बुज्झिज्ज' शब्द से शुरू होने वाले पद्य से होता है : बुज्झिज्जत्ति तिउट्टिज्जा बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वोरो किंवा जाणं तिउट्टइ || इस गाथा के उत्तरार्ध में प्रश्न है कि भगवान् महावीर ने बंधन किसे कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यह समग्र द्वितीय अंग बनाया गया है । नियुक्तिकार कहते हैं कि जिनवर का वचन सुनकर अपने क्षयोपशम द्वारा शुभ अभिप्रायपूर्वक गणधरों ने जिस 'सूत्र' की रचना 'कृत' अर्थात् की उसका नाम कृत है । यह सूत्र अनेक योगंधर साधुओं को स्वाभाविक भाषा अर्थात् प्राकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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