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अंग ग्रन्थों का अन्तरंग परिचय: आचारांग
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चाहिए, दूसरा नहीं । भिक्षुणी को चार संघाटियाँ धारण करनी चाहिये जिनमें से एक दो हाथ चौड़ी हो, दो तीन हाथ चौड़ी हों और एक चार हाथ चौड़ी हो । श्रमण किस प्रकार के वस्त्र धारण करे ? जंगिय - ऊँट आदि की ऊन से बना हुआ, भंगिय -- द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों की लार से बना हुआ, साणिय- सनकी छाल से बना हुआ, पोत्त- ताडपत्र के पत्तों से बना हुआ, खोमिय - कपास का बना हुआ एवं लकड 3- - आक आदि की रुई से बना हुआ वस्त्र श्रमण काम में ले सकता है । पतले, सुनहले, चमकते एवं बहुमूल्य वस्त्रों का उपयोग श्रमण के लिये वर्जित है । ब्राह्मणों के वस्त्र के उपयोग के विषय में मनुस्मृति (अ० २, श्लो० ४०-४१) में एवं बौद्ध श्रमणों के वस्त्रोपयोग के सम्बन्ध में विनयपिटक ( पृ० २७५ ) में प्रकाश डाला गया है । ब्राह्मणों के लिए निम्नोक्त छ: प्रकार के वस्त्र अनुमत हैं : कृष्णमृग, रुरु ( मृगविशेष ) एवं छाग ( बकरा ) का चमड़ा, सन, क्षुमा अलसी ) एवं मेष (भेड़) के लोम से बना वस्त्र । बौद्ध श्रमणों के लिए निम्नोक्त छः प्रकार के वस्त्र विहित हैं : कौशेय — रेशमी वस्त्र, कंबल, कोजव -- लंबे बाल वाला कंबल, क्षौम - अलसी की छाल से बना हुआ वस्त्र, शाण - सन की छाल से बना हुआ वस्त्र, भंग-भंग की छाल से बना हुआ वस्त्र । जैन भिक्षुओं के लिए जंग आदि उपर्युक्त छ : प्रकार के वस्त्र ग्राह्य हैं । बौद्ध भिक्षुओं के लिए बहुमूल्य वस्त्र न लेने के सम्बन्ध में कोई विशेष नियम नहीं है । जैन श्रमणों के लिए - कंबल, कोजव एवं बहुमूल्य वस्त्र के उपयोग का स्पष्ट निषेध है ।
पात्रैषणा :
पात्रैषणा नामक षष्ठ अध्ययन में बताया गया है कि तरुण, बलवान् एवं स्वस्थ भिक्षु को केवल एक पात्र रखना चाहिए। यह पात्र अलाबु, काष्ठ अथवा मिट्टी का हो सकता है । बौद्ध श्रमणों के लिए मिट्टी व लोहे के पात्र का उपयोग विहित है, काष्ठादि के पात्र का नहीं ।
अवग्रहैषणा :
अवग्रहेषणा नमक सप्तम अध्ययन में अवग्रहविषयक विवेचन हैं । अवग्रह अर्थात् किसी के स्वामित्व का स्थान । निर्ग्रन्थ भिक्षु किसी स्थान ठहरने के पूर्व उसके स्वामी की अनिवार्यरूप से अनुमति ले । ऐसा न करने पर उसे अदत्तादान - चोरी करने का दोष लगता है ।
मलमूत्रविसर्जन :
द्वितीय चूलिका के उच्चार-प्रस्रवणनिक्षेप नामक दसवें अध्ययन में बताया गया है कि भिक्षु को अपना टट्टी-पेशाब कहाँ व कैसे डालना चाहिए ? ग्रंथ की
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