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________________ १४८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'नियाग' के स्थान पर 'निकाय' अथवा 'नियाय' पाठान्तर भी है। वृत्तिकार लिखते हैं : 'पाठान्तरं वा निकायप्रतिपन्नः-निर्गतः कायः औदारिकादियस्मात् यस्मिन् वा सति स निकायो मोक्षः तं प्रतिपन्नः निकायप्रतिपन्नः तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनादेः स्वशक्त्याऽनुष्ठानात्' ( आचारांगवृत्ति, पृ० ३८) अर्थात् जिसमें से औदारिकादि शरीर निकल गये हैं अथवा जिसकी उपस्थिति में औदारिकादि शरीर निकल गये हैं वह निकाय अर्थात् मोक्ष है। जिसने मोक्ष की साधना स्वीकार की है वह 'निकायप्रतिपन्न' है। चूणिकार ने पाठान्तर न देते हुए केवल 'निकाय' पाठ को ही स्वीकार किया है तथा उसका अर्थ इस प्रकार किया है : 'णिकाओ णाम देसप्पदेसबहुत्तं णिकायं पडिवज्जति जहा आऊजीवा अहवा णिकायं णिच्वं मोक्खं मग्गं पडिवन्नो' ( आचारांगचूणि, पृ० २५ ) अर्थात् णिकाय का अर्थ है देशप्रदेश-बहुत्व । जिस अर्थ में जैन प्रवचन में 'अत्थिकाय'-'अस्तिकाय' शब्द प्रचलित है उसी अर्थ में 'निकाय' शब्द भी स्वीकृत है, ऐसा चूर्णिकार का कथन है। जिसने पानी को निकायरूप-जीवरूप स्वीकार किया है वह निकायप्रतिपन्न है। अथवा निकाय का अर्थ है मोक्ष । वृत्तिकार ने केवल मोक्ष अर्थ को स्वीकार कर नियाग' अथवा 'निकाय' शब्द का विवेचन किया है । 'महावीहि' एवं 'महाजाण' शब्दों का व्याख्यान करते हुए चूणिकार तथा वृत्तिकार दोनों ने इन शब्दों को मोक्षमार्ग का सूचक अथवा मोक्ष के साधनरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-तप आदि का सूचक बताया है। महावीहि अर्थात् महावीथि एवं महाजाण अर्थात् महायान । 'महावीहि' शब्द सूत्रकृतांग के वैतालीय नामक द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक की २१ वी गाथा में भी आता है : 'पणया वीरा महावीहि सिद्धिपहं' इत्यादि । यहां 'महावीहि' का अर्थ 'महामार्ग' बताया गया है और उसे 'सिद्धिपह' अर्थात् 'सिद्धिपथ' के विशेषण के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार आचारांग में प्रयुक्त 'महावीहि' शब्द का जो अर्थ है वही सूत्रकृतांग में प्रयुक्त 'महावीहि' शब्द का भी है । 'महाजाण'-'महायान' शब्द जो कि जैन परम्परा में मोक्षमार्ग का सूचक है, बौद्ध दर्शन के एक भेद के रूप में भी प्रचलित है। प्राचीन बौद्ध परम्परा का नाम हीनयान है और बाद की नयी बौद्ध परम्परा का नाम महायान है । प्रस्तुत सूत्र में 'वीर' व 'महावीर' का प्रयोग बार-बार आता है । ये दोनों शब्द व्यापक अर्थ में भी समझे जा सकते हैं और विशेष नाम के रूप में भी । जो संयम को साधना में शूर है वह वीर अथवा महावीर है। जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर का मूल नाम तो वर्धमान है किन्तु अपनी साधना की शूरता के कारण वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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