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________________ अंग ग्रन्थों का बाह्य परिचय ने अथवा उनकी भांति अचेलक परम्परा के अन्य किन्हीं महानुभावों ने अंग आदि सूत्रों पर वृत्तियां आदि लिखी हों जो उपलब्ध न हों। इस विषय में विशेष अनुसंधान की आवश्यकता है। सचेलक परम्परा में अंगों की नियुक्तियाँ, भाष्य, चूणियाँ, अवचूणियाँ, वृत्तियाँ, टबे आदि उपलब्ध हैं। इनसे अंगों के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त होती है। अंगों का बाह्य रूप : अंगों के बाह्य रूप का प्रथम पहलू है अंगों का श्लोकपरिमाण अथवा पदपरिमाण । ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने वाले लेखक अपना पारिश्रमिक श्लोकों की संख्या पर निर्धारित करते हैं। इसलिए वे अपने लिखे हुए अन्य के अन्त में 'प्रन्थान' शब्द द्वारा श्लोक-संख्या का निर्देश अवश्य कर देते हैं । अथवा कुछ प्राचीन ग्रन्थकार स्वयमेव अपने ग्रन्थ के अन्त में उसके श्लोक परिमाण का उल्लेख कर देते हैं। ग्रन्थ पूर्णतया सुरक्षित रहा है अथवा नहीं, वह किसी कारण से खण्डित तो नहीं हो गया है अथवा उसमें किसी प्रकार की वृद्धि तो नहीं हुई हैइत्यादि बातें जानने में यह प्रथा अति उपयोगी है। इससे लिपि-लेखकों को पारिश्रमिक देने में भी सरलता होती है। एक श्लोक बत्तीस अक्षरों का मान कर श्लोकसंख्या बताई जाती है, फिर चाहे रचना गद्य में ही क्यों न हो। वर्तमान में उपलब्ध अंगों के अन्त में स्वयं ग्रन्थकारों ने कहीं भी श्लोकपरिमाण नहीं बताया है। अतः यह मानना चाहिए कि यह संख्या किन्हीं अन्य ग्रन्थप्रेमियों अथवा उनकी नकल करने वालों ने लिखी होगी। अपने ग्रन्थ में कौन-कौन से विषय चचित हैं, इसका ज्ञान पाठक को प्रारम्भ में ही हो जाय, इस दृष्टि से प्राचीन ग्रन्थकार कुछ ग्रन्थों अथवा ग्रन्थगत प्रकरणों के प्रारम्भ में संग्रहगी गाथाएँ देते हैं किन्तु यह कहना कठिन है कि अंगगत वैसी गाथाएँ खुद ग्रन्थकारों ने बनाई है अथवा अन्य किन्हों संग्राहकों ने । ___ कुछ अंगों की नियुक्तियों में उनके कितने अध्ययन है एवं उन अध्ययनों के क्या नाम है, यह भी बताया गया है। इनमें ग्रन्थ के विषय का निर्देश करने वाली कुछ संग्रहणी गाथाएँ भी उपलब्ध होती है। समवायांग व नन्दीसूत्र में जहाँ आचारांग आदि का परिचय दिया हुआ है वहाँ अंगों को संग्रहणियाँ अनेक हैं', ऐसा उल्लेख मिलता है । यह 'संग्रहणी' शब्द विषयनिर्देशक गाथाओं के अर्थ में विवक्षित हो तो यह मानना चाहिए कि जहाँजहाँ 'संग्रहणियां अनेक हैं' यह बताया गया है वहाँ-वहाँ उन-उन सूत्रों के विषयनिर्देश अनेक प्रकार के हैं, यही बताया गया है। अथवा इससे यह समझना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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