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________________ ५५ कमलविजय - कल्याण सागर "जौं लों तत्त्व न सूझ पड़े रे, तौं लों मूढ़ भरमवश मूल्यो, मत ममता गहि जग सो लहै रे अकर रोग कर्म अशुभ लख, भवसागर इण भाँति मडै रे। कुमता वश मन वक्र तुरग जिम, गहि विकल्प मग मांहि अडै रे। चिदानंद निज रुप मगन भया, तब कुतर्क तोहि नाहि न. रे।"६० कल्याण ___ आपने सं० १८२२ में 'जैसलमेर ग़जल और सं० १८३८ में गिरनार ग़जल तथा सं० १८६४ में सिद्धाचल ग़जल की रचना की। जैन साहित्य में उर्दू की इस लोकविधा के प्रयोक्ता के रूप में कल्याण कवि बराबर स्मरण किए जायेंगें। तीनों नगरवर्णनात्मक ग़जले हैं। कल्याण खरतरगच्छ के कवि थे, किन्तु इनकी गुरुपरम्पराका निश्चित पता नहीं चल पाया।६१ श्री देसाई ने गिरनार ग़जल का विवरण-उद्धरण दिया है जो आगे संक्षेप में प्रस्तुत है गिरनार ग़जल (५९ गाथा) सं० १८२८ महाबद २, रचनाकाल से संबंधित अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं "संवत अठार अडवीसे क, महा वदि बीज के दिवसैक, कीनी यात्रा गढ़ गिरनार, कहिता ग़जल अति सुखकार। धरके अधर में नसौ धार, गढ़ युं वर्णव्यो गिरनार, खरतरपती है सुप्रमाण,कवि यु कहत है कल्याण।"६२ कल्याण सागर सूरि शिष्य संभवत: ये उदय सागर हों। इनकी एक रचना 'सिद्धगिरि स्तुति प्राप्त है। उसका प्रारम्भ देखिये। आदि- "श्री आदीश्वर अजर अमर अव्याबाध अहनीश; परमातम परमेसरू, प्रणमुं परम मुनीस। अंत "इम तीर्थनायक स्तवन लायक संधुण्यो श्री सिद्धगिरि, आठोतरीसय गाह स्तवने, प्रेम भक्तं मन धरी। श्री कल्याणसागर सूरि शिष्ये; शुभ जगीसे सुखकरी; पुण्य महोदय सकल मंगल, वेलि सुजसें जयसिरी।६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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