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________________ कनकधर्म - कमलनयन आदि- पडिमाधारी आणदवक पोते पाप न करायो रे; ___अब अने कहनें नहीं करावै, अणमोदे नहि मन भायो पडिमाधर्म थी जिनधर्म आग्यामें। रचनाकाल- अष्टादश वर्ष चौराणबे जी, पीपाड कीयो चौमास, धर्मज्ञान रसरंग में जी, श्रावक हुवा हुलासा अंत- “कनीराम कहै अह सांभली जी, छोड़ो पाखंड च्यारो संग। समगर ननज देहिलो जी, इणसुं राखो अविचल संग। इसकी भाषा राजस्थानी प्रधान मरुगुर्जर है। इनकी दूसरी रचना "त्रिलोक सुंदरी चौ० का रचनाकाल १८११ लिखा है। इसकी रचना और 'चर्या' की रचना में लम्बा अंतराल है। इसलिए इसके कर्ता के संबंध में शंका है।५७ कमलनयन आपके पिता का नाम हरिचंद था जो एक अच्छे वैद्य थे। ये मैनपुरी के निवासी थे। साहु नंदराम के सुपुत्र धनसिंह ने सम्मेदशिखर की जो संघयात्रा निकाली थी, उसके साथ कवि कमलनयन भी गये थे और इन्होंने उस यात्रा का सजीव वर्णन अपनी रचना में किया है। ये अध्यात्म रस के रसिक थे, इस संबंध में चार पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं "जिन आतमघट फूलो वसंत, सुनि करत केलि सुख को न अंत; जहाँ रीति प्रीति संग सुमति नार, शिवरमणि मिलन को कियो विचार; जिन चरण कमल चित्त बसो मोर कहें कमलनयन राति सांझ भोर। इन्होंने सं० १८६३ में 'अठाई द्वीप का पाठ' लिखा और सं० १८७१ में जिनदत्त चरित्र का पद्यानुवाद किया। १८७३ में अपने मित्र लालजीत के आग्रह पर प्रयाग में 'सहस्रनाम पाठ' की रचना की। सं० १८७४ में पंच कल्याणक पाठ और सं० १८७७ में बरांगचरित्र लिखा। अंतिम रचना शिवचरण लाल ग्रंथमाला में छप गई है। इनकी रचनायें सरल, सुबोध है और लोक कल्याण की भावना से परिपूर्ण हैं। इनकी रचना का नमूना निम्नांकित 'पावस वर्णन' से मिलेगा 'पावस में गाजै धन दामिनी दमंकै जहाँ, सुरचाप गगन सुबीच देखियतु हैं। नागसिंह आदि बनजंतु भय करै जहाँ, कंपित सुपादप पवन पेखियतु है। निरंतर वृष्टिं करें जलद अगमनीर, तरु तलैं खड़े मुनि तन सोखियतु हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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