________________
सुजानसागर - सुदामो (विप्र)
२२९ दुष दोष पूरो गयो दूरो, विमल ज्ञान विकाशणो। जगि लील जागे ऋद्धि रागे, अमर पदवी आदरे,
रत्नत्रयी सु सुजान सागर, मुक्ति रमणी ते वरे। चौपाई- खंड मिश्र आस्वादित खीर, श्रोता पामे पुष्ट शरीर,
पूरण खंड षष्टम परसाद, महिमा दृढ़ आगम मर्याद।
आपकी दूसरी रचना का नाम है “अध्यात्मनयेन चतुर्विंशति जिन स्तव; आदि- समरस साहिब आदि जिनेंदा मेटण है भवफंदा रे,
शुद्ध नयातम अमृत कंदा, पवर प्रताप दिवंदा रे। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
काची धात कलंक ज्युं प्रभु, निपजे गुण परकास जी, गुण सहु जाणि सुजान को प्रभु, सफल फली सहु आस जी।
प्यारो लागे जी साहिबो।४०९
यह रचना 'जैन गुर्जर साहित्य रत्नो' भाग २ में प्रकाशित है। सुदामो (विप्र)
जैनेतर कवि है, किन्तु मरु गुर्जर भाषा में जैन साधु शैली की रचना होने से इसको जैन साहित्य में लिया गया है। रचना का शीर्षक है; कृष्ण राधा नो रास (२४ कड़ी)। इसकी भाषा-शैली का उदाहरण देने के लिए कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
आज महापर्व भली करी हर जी रमसुं रे होली, तेवतेवड़ी जांता मली गोरी नी टोली। राधा जी रमवा संचरा सणगार सर्व सारी, हंसा गमनी हर भणी चालंती ठमके। x x x x x x रयने ऊगो रवि छोइओ अंबर थयो रातो, जमना जी ने कांठडे रास करीने मातो। कृष्ण जी केरे कामनी राधा रमति राखो, जेरे जोइओ ते मागजो, भांम थी मन भाषों। गाई सीष ने साभले, राधा हरनो रास, विप्र सुदामो वर्णवे, तिने बइकुंठ बास। १०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org