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विनय भक्ति विशुद्ध विमल
इसकी अंतिम पंक्तियाँ निम्न कलश में है जिसमें रचनाकाल दिया गया है—
जग जंतु तारण दुख निवारण आदि जिनवर में थुण्यो; संवत अठार वहोत्तरा वर्षे भविक हित हेते भण्यो । दमण पुरवर विजय दसमी आश्विन मास शुभ पक्ष अ, सु गुरुवारे सुख बधारे कहे कविजन दक्ष ओ ।" में गुरु परंपरा इस प्रकार बताई गई है—
रचना
तपागच्छ राजे बड़ दीवाजे श्री विजयदया सूरीसरु, तस सीस सुंदर गुण पुरंदर पंडित डुंगर मुणीन्द्र अ, तस सीस सेवक भणे भावे विवेक लहे आणंद ओ। ३७७
यह रचना 'कर्म निर्जरा संञ्झाय संग्रह' में प्रकाशित है।
विशुद्ध विमल
आप वीरविमल के शिष्य थे। आपने सं० १८०४ में 'बीसी' लिखी । विवरण इस प्रकार है - बीशी (१८०४ ज्येष्ठ शुक्ल ३, गुरुवार, पालणपुर)
आदि
श्री सीमंधर साहिबा, सुणो हो संप्रति भरत क्षेत्र नी बात के, अरि हां केवली को नही, केने कहीये हो मन अवदात के, श्री सीमंधर साहिबा |
कलश में रचनाकाल दिया गया है, यथा
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संवत अठार चार सुकर मासे, तत्त्व शुभ गुरु खास जी, पालणपुर प्रणमी पार्श्व जिन, गुण गाया उल्लास जी ।
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यह रचना चौबीसी-बीशी संग्रह पृ० ६३९ - ६५२ पर प्रकाशित है। कलश की प्रारंभिक पंक्तियाँ में कवि ने अपने गुरु वीरविमल की वंदना की है।
ये १८वीं शती से ही रचनरत थे और सं० १७८१ में मौन अकादशी स्तव लिखा था। १८वीं शती की एक ही रचना प्राप्त होने के कारण इन्हें १९वीं शती में स्थान दिया गया है। दूसरे इसके रचनाकाल पर देसाई जी ने प्रश्न चिह्न लगा दिया था इसलिए यह पूर्णतया निश्चित नहीं था किये १८वीं शती के रचनाकार थे। जैन गुर्जर कवियों के नवीन संस्करण के संपादक का कथन है कि मौन अकादशी स्त० का रचनाकाल सं० १७८१ ही है इसका प्रारंभ इस प्रकार है
सुपास जिणवर करुं प्रणाम, गुण छत्रीसइ बोलुं नाम,
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