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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
यह रचना ज्ञानावलि भाग २ में प्रकाशित है । रुपसेन चौ० (३४ ढाल, सं० १८७० श्रावक शुक्ल ४, गुरुवार अजीमगंज)
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आदि- श्री पंच परमेष्ठि कूं नमिये मन वच काय, जेहने नाम प्रताप थी, मनवंछित फल पाय।
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रचनाकाल- संवत अठारा अठत्तरे, श्रावण सुदि चौथ गुरुवार रे, ऋषि श्री कृष्ण जी कृपा थकी, अह रच्यो अधिकार रे ।
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अंबडरास (८ खंड, सं० १८८०, ज्येष्ठ शुक्ल १०, बुधवार, मकसूदाबाद ) इसमें वीर प्रभु के शिष्य अंबड का चरित्र गान नहीं है बल्कि गोरखपंथी क्षत्रिय अंबड का चरित्र चित्रित है। संस्कृत गद्य-पद्य में आबद्ध मूल ग्रंथ अंबडचरित्र के कर्त्ता मुनि रत्नसूरि हैं। इसमें विक्रम राजा के अद्भुत पराक्रम की उपकथा भी अनुस्यूत है। रचना में ऊपर लिखी गुरु परंपरा कवि ने दी है। रचनाकाल संबंधी पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
संवत अठारा असि केरे बरवे, जेठ शुदि दसमी सरषे रे, बुधवार दिन शुभ अ परषे रे, कीधी ओ मन हरषे रे ।
अंतिम पंक्तियॉ—
पचपन करीओ रसाल, सुणतां अति हि विशाल रे, गावतां होवे मन खुशियाला, होइजो मंगलमाल रे । ३३९
अंबड रास से यह प्रमाणित होता है कि जैन रचनाकार जैनेतर सत्पुरुषों के चरित्र भी चित्रित करते थे और वे केवल सांप्रदायिक घेरे में रचना कर्म को संकुचित नहीं रखते थे।
रुपविजय (गणि) -
आप तपागच्छीय पद्मविजय के शिष्य थे। इन्होंने संस्कृत में पृथ्वीचंद और गुणसागर के चरित्र का सुंदर चित्रण किया हैं । ये रचनायें प्रकाशित हैं। मरुगुर्जर (हिन्दी) में इन्होंने सं० १८६१ कार्तिक कृष्ण सप्तमी मंगलवार को राजनगर में 'गुणसेन केवली रास' की रचना की जिसका प्रारंभ इन पंक्तियों से हुआ है
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सकल सिद्धिदायक सदा, शंखेसर प्रभु पास;
प्रणमुं पदज प्रेम थी, आणी मन उल्लास।
इसमें विजयदेव सूरि; विजयसिंह सूरि के शिष्य सत्यविजय गणि, कपूरविजय गणि, खेमा (क्षमा) विजय गणि, जिनविजय, उत्तमविजय, पद्मविजय नामक गुरुजनों को सादर नमन किया गया है। रचनाकाल के लिए निम्न पंक्तियाँ देखे
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