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________________ १९२ हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आदि- ऊंकार हे अपार पाराबार कोऊ न पावे, कछुयक सार पावे जोई नर ध्यावेगी। गुण त्रय उपजत विनसत थिर रहै, मिश्रित सुभाव मांहि सुद्ध कैसे आवेगो। अगम अगोचर अनादि आदि जाकी नहीं, औसो भेद वचन विलास सो पावेगो। नय विवहार रुपा चौसै है अनंत भेद, बह्मरुप निश्चयनय अक द्रव्य थावैगो। इनके गुरु निहालचन्द्र ने सं० १८०१ में ब्रह्मबावनी' की रचना की थी जिसका विवरण यथास्थान दिया गया है। संभवत: इसीलिए इन्होंने अपनी रचना का नाम लघु ब्रह्मवावनी कर दिया। यथा जिनगुण गायों सरवंग मेरो सांम है, अही लघु ब्रह्मबावनी ग्यातामनभावनी। अंत में कवि ने श्वेतांबर संप्रदाय के पार्श्व गच्छ और पार्श्वचंद तथा अनूपचंद का सादर उल्लेख किया है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ निम्नवत् हैं अन्य न सरुप धार पूरब को देस सार, जिहां बहे सदा सुर सरिता को जोर रे। चिदानंद ताही रुष जाहि में अनंत सुष, बह्म रूप स्वाद पायो काहे कर सोर रे।३३७ रुपचंद गुजराती लोकागच्छ के कृष्णमुनि के ये शिष्य थे। सं० १८५६ से १८८० तक की अवधि में इन्होंने अनेक रचनायें बंगदेश के अजीमगंज (मुर्शिदाबाद) में की। रचनाओं की सूची निम्नांकित है श्री पाल चौ. (४१ ढाल, १२०० कड़ी, सं० १८५६, अजीमगंज), धर्म परीक्षा रास (सं० १८६०, अजीमगंज), पंचेन्द्री चौपाई (सं० १८७३ फिरंगी राज्ये, मुर्शिदाबाद), श्री रुपसेन चौ० (सं० १८७८ अजीमगंज); अंबड रास (१८८०, अजीमगंज), सम्यकत्व चौ० (अपूर्ण) ओर अठाइ लब्धि पूजा (सं० १८८८, मुर्शिदाबाद)।३३८ श्री देसाई ने इनकी गुरुपरंपरा इस प्रकार बताई है मेघराज > सिंधराज > गुरुदास > मानसिंह > प्रेमकवि > कृष्ण ऋषि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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