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________________ १८० आदि अंत---- हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्री सद्गुरु सुपसाय थी, आराधुं सिद्ध चक्र अह महिमा छे अति घणो, सुरमां मोटो शक्र । मोरा लाल श्री सिद्ध चक्रसेविये । संवत् १८२५ नो वसंत मास बखांण मारो, सकल पंडित शिरोमणि, माण कवि जे गुरुराय । तास शिष्य अनुभवे करी, क्यों नवपद महिमाय, स्वततां बहु सुखा पामीयें, रत्नविजे गुणगाय । मोरा - ३१६ इसके प्रारंभ में देशी अर्थात् धुन का निर्देश करते हुए कवि ने लिखा है “कंथ तमाकू परिहरो, ‘ओ देसी' इससे ध्वनित होता है कि सुधारपरक लोक गीतों में तमाकू जैसी नशीली चीजों के निषेध पर पर्याप्त बल दिया जाता था। इस रचना की प्रति श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई के पास है। इसमें माणेकविजय के गच्छ का उल्लेख नहीं है। लगता है कि देसाई जी ने अनुमान से ही गच्छ का निर्देश कर दिया है। रत्नविमल ये क्षेमकुशल शाखा के मुनि कनकसागर के शिष्य थे। इनकी निम्नांकित चार रचनाओं के विवरण उपलब्ध हैं जिसे आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। पुरंदर चौ० (सं० १८२७, कालउना) मंगल कलश चौ० (सं० १८३२, बेनातट), तेजसाह चौ० (सं० १८३४, बावड़ीपुर), इलापूत्र रास (सं० १८३९, राजनगर) ये चार ग्रंथ अगरचंद नाहटा द्वारा बताये गये है । ३१७ श्री देसाई ने इनकी गुरु परंपरा इस प्रकार बताई है - Jain Education International खरतरगच्छ की क्षेम शाखा के धर्म कल्याण इनके प्रगुरु और कनक सागर इनके गुरु थे। मंगल कलश चौ० (सं० १८३२, बीजा श्रावण शुक्ल १५, बेनातट) रचनाकाल— संवत् अठार बत्तीसा बरसे द्वितीय श्रावण सुदी हरषे जी, शखड़ी पूनम मंगल दिवसे, कीयो संबंध जगीसे जी । इस रचना में खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य जिनचंद और उसकी क्षेम शाखा के उक्त दोनों आचार्यों का नामोल्लेख किया गया है। बेनातट शायद इनकी जन्म भूमि भी थी। कवि ने लिखा है मरुधर देश पुर बेनातट जिहां छे आईनो थानो जी, तिहां चोमासो कवियण कीधो, भवियण से बहु मानो जी । पाठक रतनविमल कहे भाई, सुणज्यो संबंध सवाई जी । ३१८ इलापुत्र रास (९ ढाल, सं० १८३९ चौमासा, राजनगर ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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