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प्रथम-अध्याय हिन्दी (मरुगुर्जर) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (खण्ड-चार
१९वीं विक्रमीय) १९वीं शती (विक्रमीय) के हिन्दी जैन साहित्य की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि(क) राजनीतिक पृष्ठभूमि
ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से इस शतक को रव्रीष्टीय सन् १७५६ ई० से १८५७ तक मानकर चलना युक्तिसंगत लगता है क्योंकि इस कालावधि में एक तरफ मुगल-साम्राज्य की समाप्ति के साथ मराठा राज्य का पतन और देशी रियासतों की पराजय हुई तो दूसरी तरफ प्लासी युद्ध में अंग्रेजों की विजय के साथ बंगाल में कम्पनी (ईस्ट इण्डिया) का राज प्रसार प्रारंभ हुआ। एक के बाद दूसरी देशी राज-शक्ति पराजित होती गई और रबर के तम्बू की तरह कंपनी का राज बंगाल से बढ़कर दिल्ली तक देखतेदेखते पहँच गया। कम्पनी का यह शोषणकारी, आतंककारी शासन पूरे एक शतक फलता-फूलता रहा। १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के साथ उसका समापन हो गया। महारानी विकटोरिया भारत की राज-राजेश्वरी बनीं और भारत देश विशाल ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश हो गया।
इस शताब्दी के प्रमुख राजनीतिक सत्ता के घटकों में पतनशील मुगल साम्राज्य, मराठा राजवाड़ों, देशी नरेशों और नवाबों के अलावा यूरोपीय कम्पनिया, विशेषतया आंग्ल ईस्ट इण्डिया कंपनी थी। भारतीय जनमानस, समाज तथा संस्कृति और साहित्य पर इस काल के राजनीतिक व्यतिक्रम और उथलपुथल का प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी था। इसलिए इन सबसे संबंधित घटनाचक्रों पर सरसरी दृष्टि से विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। इस शताब्दी में कम्पनी के गवर्नरों और गवर्नर जनरलों ने अपनी कूटनीतिक शक्ति तथा सैनिक शक्ति के बल पर एक के बाद दूसरी देशी राजसत्ता को धराशायी किया, प्रजा का शोषण किया और किसानों, कारीगरों तथा कामगारों का जम कर उत्पीड़न किया। हमारी परंपरा और संस्कृति की अवमानना की और आंग्ल शिक्षा, संस्कृति तथा भाषा और साहित्य का वर्चस्व स्थापित किया। इस प्रकार राजनीतिक विजय के साथ उन्होंने सांस्कृतिक विजय प्राप्त करने का सफल प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप आज यह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है कि उनकी राजसत्ता समाप्त हो जाने के बाद भी उनकी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का भूत जनमानस के ऊपर सवार है।
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