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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
“मित्र सु अतिसुष नै कही, सुनियै झुनकतलाल; श्री जिन पारसनाथ की, बरन करौ गुणमाल । "
उनके कथनानुसार कवि ने सं० १८४४ में 'पार्श्वनाथ जी कवित्त' की रचना की; जिसमें बनारस, यहाँ की गंगा, घाट और पुल आदि का मनोहर वर्णन है, यथा
नगर बनारस जहाँ विराजै, बहै सुगंगा गहन गभीर, उज्वल जल भरि शोभा मंडित, परे किनारे किश्ती भीर ।
कंचन रत्न जड़ित अति उन्नत श्वेत वरन पुल लसै सुधीर; बन उपवन करि शोभा शोभित अरु विसराम सुता के तीर । गंगा की मनोरम शोभा का वर्णन निम्न पंक्तियों में दृष्टव्य है
रूप के रंग मानौ गंग की तरंग सम इंदु दुति अंग ऐसे जल सुहात है। ससि की सी किर्ण किधौं, मेह तट झरनि किधौं, अंबर की भरनि किधौं, मेह वरसत है। हीरा सम सेत रवि छवि हरि लेत किधौं मुक्ता दुति देषि मन मानौ सरसत है । सिव तिय अपने पति को शृंगार देखि करतु कटाछ ऐसे चमर फहरत है । " १६३
टेकचंद
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इनके पिता का नाम दीपचंद और पितामह का नाम रामकृष्ण था। ये मूलत: जयपुर के रहने वाले थे किन्तु माहिपुरा में रहने लगे थे। इनकी अब तक २१ से अधिक रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। पुण्यानव कथा कोश १८२२, पंच परमेष्ठी पूजा, कर्मदहन पूजा, तीन लोक पूजा १८२८ पंचकल्याण पूजा, पंच भेद पूजा, अध्यात्म बाराखड़ी और दशाध्यान सूत्र टीका उल्लेखनीय रचनायें हैं । १६४ पुण्यास्रव कथा कोश में ७९ कथाओं का संग्रह है। इनकी प्रसिद्ध रचना 'सुदृष्टितरंगिणी' जैन समाज में अधिक प्रचलित है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चरित्र का प्रभावी वर्णन १७५०० छंदों से हुआ है। यह १८३८ की रचना है । १६५ इसके अतिरिक्त षट्पाहुड वचनिका और बुध प्रकाश छहढाला इत्यादि का भी नामोल्लेख मिलता है। सं० १८२६ ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी को आपने बुद्धि प्रकाश की रचना की थी जिसकी प्रति जैन मंदिर फतहपुर, शेखावटी (राज०) में है।
आदि
" मन दुख हर कर शिव सुरां नरा सकल सुखदाय। हरा कर्म अष्टक अरि, ते सिध सदा सहाय । त्रिभुवन तिलक त्रिलोकपति, त्रिगुणात्मक फलदाय।
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