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समुद्रबद्ध
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रत्नाकर भाग १ में भीमसिंह माणक द्वारा प्रकाशित हैं। आनंद घन बहुत्तरी बाला० की चर्चा पहले की गई है। यह बड़ा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
समुद्रबद्ध वचनिका—
यह रचना 'समुद्रवद्धचित्र कवित्त' पर स्वयं लेखक द्वारा लिखित वचनिका है। इसी प्रकार इन्होंने 'जिनमत धारक व्यवस्था वर्णन स्तव' पर भी बालावबोध लिखा है। आत्मनिंदा सं० १८७० और जिन प्रतिमा स्थापना ग्रंथ १८७४ चैत्र शुक्ल ७ में रचित गद्य ग्रंथ हैं। अध्यात्म गीता बाला० १८८०, आषाढ़ शुक्ल १३ बीकानेर में लिखा गया था, मूल ग्रंथकार श्रीमद् देवचन्द्र हैं। इसका रचनाकाल इन पंक्तियों में है
नभ गज द्वीप शशि तेरसें शुक्ल अषाढ़ समास, ज्ञानसार भाषा करी, विक्रम देस चौमास ।
साधु सञ्झाय बाला० भी श्रीमद् देवचंद कृत मूल ग्रंथ की टीका है। यह श्रीमद् देवचंद भाग दो में प्रकाशित है।
पद समवाय अधिकार की रचना १८८८ कार्तिक शुक्ल नवमी को हुई । पद्य रचनाओं में उल्लिखित नवतत्त्व भाषा गर्भित स्तव का रचनाकाल
संवच्छर निश्चय नय विगइ प्रवचन माय,
परम सिद्धि पद वा गतें अ अंक गिणाय ।
में आये शब्द ' विगई' का अर्थ अस्पष्ट है यदि इसे विकृति या विकार माना जाय तो ही इसका अर्थ '६' मानना होगा अन्यथा अर्थ निकालना कठिन है। इसी प्रकार 'चौबीसी' में रचनाकाल संबंधी पंक्ति के किस शब्द का आशय '७' है यह भी समझना कठिन हो रहा है । १५८
ऐतिहासिक रास संग्रह में इनकी ९ दोहों की एक रचना 'श्रीमद् ज्ञानसार अवदात दोहा' नाम से संकलित है । उसमें भी इनके पिता का नाम उदैचंद सांड और माता का नाम जीवण दे तथा जन्म सं० १८०१ और सं० १८१२ में रत्नराज रायचंद से दीक्षित होना बताया गया है, यही परिचय पहले दिया गया है। इसमें आपके एक शिष्य सदासुख का भी उल्लेख मिलता है।
आदि
उदैचंद सुत ऊपज्यौ, लीयो विधाता लोच, देव नरायण दाखवुं, को गजब गति आलोच ।
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