________________
उत्तमचन्द
रचनाकार-संवत सत्तर बरसइ अकारस सार,
श्रावण सुदि दसमी दिवसै गुरु ते वार । पंडित विद्यानंद सीस कहइ कर जोड़ी,
अ तवन भणसइ तेह-घर संपति कोडि । इसका कलश इस प्रकार हैइय पास जिणवर भविक दुखहर वीजपुर मंडण धणी । मनि आस पूरइ पाप चरइ जासि जगि कीरति घणी। तपगच्छनायक मुगतिदायक श्री विजयदेव सूरीसरो,
वर विवुध विद्यानंद सेवक उत्तमचंद मंगलकरो' । इनकी एक 'बीसी' भी है पर यह निश्चित नहीं कर पाया हूँ कि यह इन्हीं उत्तमचंद की रचना है । इसके आदि और अन्त की पंक्तियाँ दे रहा हूँआदि-श्री सीमंधर मुझ मन मानीउ जी, पर उपगारी परधान रे,
आस्यापूरण मे जिन उलगउ रे, जिउं पामउ अविचल थान रे । अन्त-रुखमणी वर वखति मिल्यो जी, तउ पहुंती सघली आस रे,
उत्तमचन्द मांगइ अतलइंजी करयो तुम्हारो दास रे।
उत्तमसागर - आप तपागच्छीय कुशलसागर के शिष्य थे। आपने 'त्रिभुवन कुमार रास' (६५० कड़ी, की रचना सं० १७१२ वैशाख शुक्ल ३ गुरुवार को पोरबन्दर में पूर्ण की थी। इसके सम्बन्ध में कवि कहता है कि रास पहले भी बहुत लिखे गये और आगे भी बहुत से रचे जायेंगे पर त्रिभुवनकुमार रास को सुनकर यदि श्रोता न रीझें तो या वे गुणज्ञ नहीं या मेरी वाणी में रस नहीं, यथा --
सरस रास अनेक छे, होस्यो वली अनेक । त्रिभुवनसिंह कूमार नो, सुणयो रास विवेक । एह रास सुणतां थको, जे नर नवि रीझंत, तो मुझ वयनि रस नहीं, के श्रोता नहीं गुणवंत ।
१. श्री देसाई --जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १४२, भाग ३ पृ० ११९४
(प्र०सं०) और भाग ५ पृ० १८५ (न० संस्करण) २. वही भाग २ पृ० १४२ और भाग ३ पृ० १९९४ प्र० सं० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org