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________________ हंसरत्न रचनाकाल और गुरु परंपरा संवत सतर पंचावन वरषे, अधिक उमंग बढ़ाया, माघ असित तृतीया कुजवासरे, उद्यम सिद्ध चढ़ाया रे । तपगणगगन विभासन दिनकर, श्री राज्यविजय सूरीराया, शिष्यलेस तसू अन्वय गणिवर, ग्यानरत्न मन भाया रे । तस्य अनुचर मुनि हंस कहे इम, आज अधिक सुख पाया, जिन गुण ज्ञाने बोधे गावे, लाभ अनंत उपाया रे।' यह चौबीसी 'चौबीसी बीसी संग्रह' पृ० ३६८-८९ पर प्रकाशित है। यह स्तवनमंजूषा में भी छपी है । आपकी दूसरी रचना है शिक्षा शत दुहा अथवा आत्मज्ञान बोधक शतक (सं० १७८९ फागण वदी ५ गुरु, ऊना, आदि-- सकल शास्त्र जे वर्णव्यो, वर्णन मात्र अगम्य, अनुभव गम्य ते नित्ति नम्, परमरूप परब्रह्म । सोपाधिक दष्टि ग्रह्यो, दीसे जेह अनेक, निरुपाधिक पद चिंतता, जे अनेक थइ एक । अन्तिम दो दोहे इस प्रकार हैं सूर्य गमि नहि धुंक ने, जलद जवासा गात्रि, तोपणि महिमा तेहनो, न घटि इक तिल मात्र । नय प्रमाण रत्ने भर्यो, जे गंभीर अगाध, जिनमत रत्नाकर जपो, अवितथ वाक्य अबाध । रचनाकाल-- सत्तर सें छयासी समें, अ शिक्षाशत सार, फागुण वदि पंचम गुरौ, रच्यो उनाइ मझार । ओ शिक्षाशत जे सुगुण, भणी धरी मनभाव, हंसरत्न कहि तसु घरि, जयकमला थिर थाय । आपने गद्य में 'अध्यात्म कल्पद्रुम पर बालावबोध' भी लिखा है। यह बालावबोध 'प्रकरण रत्नाकर भाग ३' में प्रकाशित है । इस प्रकार २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५६१-६२, भाग ३, पृ० १४५०-५१ (प्र०सं०) और भाग ५, पृ० १५७-१५८ (न०सं०)। २. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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