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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इम अनेक तीरथ अछि समरथ पछिम दिसि सोहामणां, जय जयकारक शिवसुख कारक, त्रिभुवन नायक जिन तणां । संवत ससी मुनि वेद रस आसो मासि अभिनवी;
बुध शिव विजय शिष शील, सेवी वदि आणंद विनवी । इस रचना के चौथे खण्ड का अंतिम हिस्सा-कलश-उद्धृत करके यह विवरण समाप्त किया जा रहा है । कलश-.
इह चार दिग वधू कंठि राजि तीरथ मणीमय माल , जस दरिस परिमल लहिं निरमल भविक वृन्द रसाल । बुध शिवविजय शिष शीलविजइ अखय आणंद अति घj, कर विमल जोडी कुमति छोडी कर्यु तवन सोहामणुं ।'
यह तीर्थमाला' प्राचीन तीर्थमाला संग्रह के पृष्ठ १०१ से १३१ पर प्रकाशित हो चुकी है। .....
शुभचन्द्र - जैन साहित्य में यह बड़ा परिचित नाम है क्योंकि इस नाम के कई भट्टारक, मुनि-साधु लेखक और कवि हो गये हैं। भट्टारक सम्प्रदाय के चार शुभचन्द्र अलग-अलग शताब्दियों में हो गये हैं। प्रथम शुभचन्द्र १६वीं में थे और कमलकीर्ति के शिष्य थे । दूसरे भी १६वी शती के ही साधु थे और पद्मनंदि के शिष्य थे । १७वीं में भी इसी प्रकार दो शुभचन्द्र हुए- एक विजयकीर्ति के शिष्य और दूसरे हर्षचन्द के शिष्य थे।
१८वीं शताब्दी में भी एक साहित्यिक अभिरुचि संपन्न एक शुभचन्द्र हुए जो भट्टारक रत्नकीति7 भ० कुमुदचन्द्र 7 भट्टारक अभय चन्द्र के शिष्य थे। अभयचन्द की भट्टारक गादी पर शुभचन्द सं० १७२१ ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा को पोरबंदर में प्रतिष्ठित हुए थे। इनकी सांस्कृतिक-साहित्यिक क्रियाकलापों में बड़ी रुचि थी। इनके पिता गुजरात के जलसेन नगर निवासी और हूबड़ जाति के श्रावक थे। उनकी पत्नी माणिक दे की कुक्षि से नवलराम नामक बालक उत्पन्न हुआ जो बाद में अभयचन्द से दीक्षित होकर भट्टारक शुभचंद्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ३७४-३७८
(प्र०सं०) और भाग ५ पृ० ५५-५८ (न•सं०)।
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