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विनयसागर
विनयसागर आप सागरगच्छीय वृद्धिसागर सूरि के शिष्य थे । आपने 'राजसागर सूरि संञ्झाय' (गाथा ६३) सं० १७१५ के पश्चात् ) की; इसके मंगलाचरण की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें
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पास जिणंद प्रणमी करी, आणां मनस्युं रंग लाल रे, समरी सरसति सामिनी गजगामिनी द्यो मतिचंग लाल रे । सुविहित साधु शिरोमणि श्री राजसागर सूरिंद लाल रे, तास तणां गुण वर्णुवुं, सांभलयो सहू आनंदि लाल रे 1 आदि-- इम भव्य प्राणी भगति आणी, हरष स्युं गुण उच्चरई, श्री राजसागर सूरि केरो तेह जयमंगल वरइ । तस पट्टधारक सौख्य कारक, श्री वृद्धिसागर सूरिसरो, तस चरण सेवक विनय सागर सकल संघ मंगलकरो । ' राजसागर इनके प्रगुरु थे और उनका स्वर्गवास होने पर यह रास लिखा गया था ।
विनयसागर II - ये अंचलगच्छीय लेखक थे लेकिन इनकी गुरु परम्परा अज्ञात है । इनकी एक रचना 'अनेकार्थ नाममाला' का उल्लेख मिलता है । यह रचना १८वीं शताब्दी की है किन्तु रचनाकाल संदिग्ध है । कवि ने रचनाकाल इस प्रकार कहा है-
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'सतर सइ विडोतरे' जिसका आशय सं० १७०२ भी हो सकता है ।
विनीत कुशल - ये तपागच्छीय सुमतिकुशल के प्रशिष्य एवं विवेक कुशल के शिष्य थे । इन्होंने 'शत्रुंजय तीर्थमाला' (७ ढाल सं० १७२२) लिखी । आपने उसी समय जूनागढ़ निवासी संघवी सहस किरण के सातपुत्रों को संघवी तिलक कराकर संघ यात्रा निकाली और शत्रुंजय तीर्थ तक संघ ले गये । इस रचना में उसी तीर्थ की संघयात्रा का वर्णन है । जब संघयात्रा पालीताणा पहुँची तो संघवी को प्रोत्साहन
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १२११ ( प्र०सं० ) और भाग ५, पृ० २७४ - २७५ ( न०सं० ) । ११३७ ( प्र० सं० )
२. वही भाग ३, पृ०
और भाग ४, पृ० ६६
( न०सं० ) ।
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