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________________ विद्यासागर १८वीं शताब्दी का विद्वान् बताया है, इस रचना का प्रथम पद्य देखिये-- श्री जिनराज नो जन्म जाणा सुरराज ज आवे, वात वयणे कीर सार श्वेत अ रावण ल्यावे । प्रतिवयणे वसुदंत दंत दंते ओक सरोवर, सरोवर प्रति पचवीस कमलनि सोहे सुंदर ।' विद्यासागर सरि कृत नेमिनाथ फाग सं० १७८३ का उल्लेख उत्तमचंद कोठारी ने अपनी सूची में किया है। काफी सम्भावना है कि ये भी उपर्युक्त विद्यासागर सूरि ही होंगे। विनयकुशल तपागच्छीय लक्ष्मीसागर इनके प्रगुरु थे और विबुध कुशल इनके गुरु, इन्होंने सं• १७४५ और १७८८ के बीच किसी समय एक चौबीसी की रचना की। लक्ष्मीसागर सूरि का आचार्यकाल सं० १७४५ से १७८८ ही है अतः इसी बीच प्रस्तुत चौबीसी की रचना सम्भव है । इसके आदि की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं--- श्री लक्ष्मीसागर सूरि नाम थी, पगे पगे नवेय निधान, विबुधकुशल सुपसाय थी, विनय स्युं कोडि कल्याण : उदाहरणार्थ इसकी अंतिम पंक्तियाँ भी प्रस्तुत हैं-- वीर जिणंद जय जगत उपगारी शासन सोह बघारी जी। श्री जयंत कोठारी की यह आशंका उचित है कि प्रस्तुत कवि विनयकुशल इसी परम्परा के लक्ष्मीसागर के शिष्य थे या किसी अन्य लक्ष्मीसागर के ? यह प्रश्न विचारणीय है जिसका निर्णय जैन विद्वानों को करना चाहिए। विनयचद--ये महोपाध्याय समयसुंदर की परंपरा में ज्ञानतिलक १. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल- राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व पृ० २०८ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई---जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १५२७ (प्र०सं०) और वही भाग ५, पृ० ३३९ (न०सं०) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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