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________________ विद्यारुचि विजयकुशल और उदयरुचि के पश्चात् हर्षरुचि का उल्लेख किया है इसलिए श्री देसाई की गुरुपरंपरा ही प्रामाणिक है। इसका रचनाकाल उन्होंने भी सं० १७१७ कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार और रचना स्थान सिरोही बताया है। हर्षरुचि को अपना गुरु स्वीकार करने के पश्चात् कवि ने लिखा है-- तास सीस संवेग महोदधि श्री हर्षरुचि बुध कहीये रे, उपगारी श्री गुरु मुझ मिलीया, दरशण थी सुख लहीये रे । विबुध शिरोमणि मुगुट नगीनो, श्री विद्यारुचि तस सीस रे। गुणमणि मंडित पूरो पंडित सुखदायक सुजगीस रे, तस लघुवंधव विबुध लब्धरुचि रच्यो चंद नृप रास रे, आछो अधिको जो कह्यो हुइ, मिच्छा दुक्कड़ तास रे । इससे तो यह भी आभास होता है कि इन दोनों गुरु भाइयों में इस रास के कर्तृत्व का मुख्य कार्य लघुबंधव अर्थात् लब्धरुचि द्वारा ही निपटाया गया था। अन्तिम पंक्तियों में जिस प्रकार के विशेषण विद्यारुचि के साथ लगाये गये हैं वह शायद लघुबंधव लब्धिरुचि द्वारा प्रयुक्त हैं। स्वयं विद्यारुचि ने अपने लिए ऐसी शब्दावली शायद न लिखी होगी। रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है-- संवत सतर सतरो तरै, कार्तिक मास उदार, सुदि तेरस दिन निरमलो, बलवत्तर गुरुवार । इसमें शील का महत्व दर्शाने के लिए चंद राजा के शील स्वभाव का वर्णन दृष्टांत रूप में वर्णित है। कवि ने लिखा है शील प्रभावि चंद नृप, जग पाम्यो जयकार, इम जाणीनइ भविक जन, पालो शील उदार ।' विद्याविलास--आप खरतरगच्छीय मानविजय के प्रशिष्य एवं कमलहर्ष के शिष्य थे। आपने अर्जुन माली चौपाई सं० १७३८, कुलध्वज चौपाई सं० १७४२ लूणाकरणसर, अक्षरबत्तीसी और दशवकालिक संञ्झाय आदि काव्य रचनायें की हैं ।२। १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० १५९-१६४ और भाग ३, पृ० १२०४ (प्र०सं०) और वही भाग ४ प० २७७-२८२ (न०सं०)। २. अगरचन्द नाहटा---परंपरा पृ० १०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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