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________________ रूपविमल ४२१ बालावबोध सं० १७२८ चैत्र कृष्ण १ सोमवार को लिखा । । इसके गद्य का नमूना अनुपलब्ध है । लक्ष्मण -- आप मलधारी गच्छ के वाचक भगवंत विलास के शिष्य थे । आपकी कृति 'छ आरा नी चोपाई' सं० १७५८ कार्तिक शुक्ल १३, बुधवार को पटना में पूर्ण हुई थी । इसके प्रारम्भ की पंक्तियाँ निम्नवत् हैं श्री जिनदेव अराधिये रे लाल, वंदी श्री गुरुपाय सुखकारी रे, भाव जिनवर वंदीयै रे लाल | रचनाकाल संवत सतरह से समये अठानवइ रे, फाल्गुन नै सित पाषिरे, त्रितायां बुधवारे रास रच्यौ सुभभाव सौं रे, देव शास्त्र गुरु साषी रे । पटना निवासी श्री दीपचंद के अनुरोध पर यह रचना की गई थी । इसका अंतिम अंश 'कलश' आगे दिया जा रहा है श्री आदि जिनवर सकल सुखकर युगल धरम निवारणो, समत्ति दाता शुभ विख्याता भव समुद्र तारणो । गछ श्री मलधार मंडण दुह विहंडण वाचक श्री भगवंत विलास जी, जी । लक्ष्मीचन्द्र - पाठक लब्धिरंग आपके गुरु थे । ऐसा प्रतीत होता है कि आपका दीक्षा नाम लब्धिविमल था, बाद में आचार्य पद पर आने के बाद नाम लक्ष्मीचन्द्र पड़ा । ग्रन्थ में सम्बन्धित पंक्तियाँ इस प्रकार दी हुई हैं तस्स शिष्य मुनि श्री कहइ लक्ष्मण, श्री संघ पूरी आस ज्ञान समुद्र अपार पय, मति नौका गति मंद, पै केवल नीकौ मिल्यो आचारज शुभचन्द्र । १. मोहनलाल दलीचंद देसाई -- जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १६३० (प्र०सं० ) और भाग ४, पृ० ४१८ ( न० सं०) । २. वही, भाग २, पृ० ४८८ (प्र० सं० ) और भाग ५, पृ० १९१-१९२ ( न० सं ० ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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