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________________ __ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अमल कमल परिमल जिसो, महीमा महिमा जास, व्यापइ थापइ परमपद, अतिशय करत उजास । आपने कुमति निवारण हुंडी स्तवन (गाथा ७९) लिखा है जिसमें दिगम्बरों का खण्डन है। 'दशमत स्तव' चौबीसी और संञ्झाय भी रचा है।' मेरुलाभ-(माहावजी) ये आंचलगच्छ के सूरि कल्याणसागर के प्रशिष्य और विनयलाभ के शिष्य थे। कल्याणसागर का जन्म सं० १६३३, दीक्षा सं० १६४२, आचार्य पद सं० १६४९, गच्छेश पद सं० १६७० और महापद (स्वर्गलाभ) सं० १७१८ भुज में हुआ था। इनके प्रशिष्य मेरुलाभ अपर नाम माहावजी ने सं० १७०४ में 'चन्द्रलेखा सतीरास' ( ३०३ कड़ी) मागसर वदी ८, गुरुवार को पूर्ण किया, उसका मंगलाचरण प्रस्तुत है-- मदकल गजघट-मद-तरण, नभ सम गति नव बोध, अनिश ऊपाशय क्रम अमल, सिंह सुरूप सुयोध । पद तसु निति प्रति प्रेम सुं, प्रणमुं तेज प्रकाश, नत सुरमुकुट निचिताभरण, भगत वदइ इतिभास । मेटइ जड़ता मुझ तणी, नवरस घउ निति वाणि, परमेसरि परसाद थी, परबंध चढ़ी प्रमाणि । कवि ने मेरुतुंग का वंदन किया है, तत्पश्चात् वह कहता है-- सो सद्गुरु सानिधि थकी, प्रगटित प्रबल प्रबंध, चतरां चित्ति चमत्करउ, शुक परि वाक्य संबंध । सज्जन जन संसार मां, परगुण ग्रहइ प्रत्यक्ष, दुर्जन देषइ दोस जिम, करहा कंटक भक्ष । निरखी अ नवमई वतिइं, भणसयउं भाव भगत्ति, चंद्रलेहि चउपइ सुणउ, चतुरधरी अकचित्त । गुरुपरंपरा-वादी गज घट सिंह वदीतो, कल्यान सूरीश कहा ओ, वाचक जास आज्ञाइं विराजइं, विजयलाभ वरराओ। १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० १८८-८९, भाग ३, पृ० १२१४ (प्र०सं०) और भाग ४ पृ० २५९-२६०(न०सं०) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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