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________________ ३५५ माणेकविजय आदि- श्री नाभिरायां कुल दिनमणि हो राज, मरुदेवी मात मलार, वारिमारा साहिबा । सकल तीरथ सिरसेहर हो राज, शेजेजगिरि सणगार; वारिमारा साहिबा । श्री रूपविजय कविराज नो हो राज, मांणिक कहै मुझ तार; अन्त-- रिषभ जिणेसर नित नमूं अ, बीजा अजित जिणंद तो, श्री रूपविजय गुरु सेवतां अ, मांणिक ने मंगलमाल तो।' माणेकविमल--आप तपागच्छीय देवविमल के शिष्य थे । आपकी रचना शाश्वत जिन भवन स्तव (८५ कड़) सं० १७१४ कार्तिक शुक्ल १० गुरुवार को समी में निर्मित हुई थी। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ अग्रलिखित हैं-- वीर जिणेसर पाय नमी, प्रणमी सारदमाय, तास तणे सुपसाउले, गास्युं श्री जिनराय । अतीत अनागत वर्तमान, चो बीसी चिहंसार, बहुत्तरि तीर्थंकर टाली पाप विकार । रचनाकाल-- संवत सतर चउदोत्तरई, काती सुदि गुरुवार; सुणि सुन्दरी। दसमी दिन मइ गाइया अ, मालतंडी, समीनगर मझारि, सुणि सुंदरी । यह रचना प्राचीन स्तवन रत्नसंग्रह भाग २ में प्रकाशित है। इनकी किसी अन्य रचना का अभी पता नहीं चला है। मानकवि (मानजी)--खरतरगच्छ के सुमतिमेरु आपके प्रगुरु और उनके शिष्य विनयमेरु आपके गरु थे। आपने वैद्यक के दो ग्रन्थ पद्यबद्ध हिन्दी में रचे हैं। प्रथम ग्रंथ 'कवि विनोद' की रचना सं० १७४५ १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५५७-५८ (प्र०सं) और भाग ५, पृ० ३३८ (न० सं०)। २. वही, भाग ३, पृ० १२०१-१२०२(प्र०सं०) और भाग ४, पृ० २६०-६१ (न० सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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