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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मणिविजय ---तपागच्छ के कपूरविजय आपके गुरु थे। उन्होंने जिनप्रभ सूरि के शासन (सं० १७१०-१७४९) में अपनी रचनाएँ की।
आपकी रचना १४ गुणस्थानक भास' अथवा संञ्झाय जिनेन्द्र भक्ति प्रकाश और चैत्य आदि संञ्झाय भाग १ तथा अन्यत्र से भी प्रकाशित प्रसिद्ध रचना है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ निम्नांकित हैं
श्री शंखसरपुर धणी जी, प्रणमी पास जिणंद, नाम जयंता जेहनूं जी, आपइ परमाणंद । भविक जन सँभलो अह विचार,
कर्मग्रंथ मांहि कह्यो जी, ओ सधला अधिकार । गुरु परंपरान्तर्गत कवि ने विजयदेव, विजयप्रभ और कपूरविजय का उल्लेख किया है। रचनाकाल नहीं दिया है किन्तु यह १८वीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है । इसकी अंतिम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
पूजो पूजो रे प्रभु पास जी पूजो, संखेसर परमेसर साहिब, असम देव न दूजो रे, जेहनइ नामइ नवनिधि पामई, मुगतिवधू तस कामई, सुरनर नारी बे कर जोडी आविनइं सिरि नामइं रे ।
सकल पंडित शिर मुगुट नगीनो, कपूरविजय गुरु सीस, मणिविजय बुध इणि परि जंपइ, पूरो संघ जगीस रे ।'
मतिकुशल --खरतरगच्छ के गुणकीति गणि के शिष्य मतिवल्लभ आपके गुरु थे। आपने चन्द्रलेखा चौपइ अथवा रास (२९ ढाल ६२४ कड़ी) सं० १७२८ आसो वदी १० रविवार को पचीआख में पूर्ण की। रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है -
संवत सिद्धिकर मुनि शशि वदि आसो दसमि रविवार,
श्री पचीआख में प्रेमशु जी अह रच्यो अधिकार । गुरु परंपरा बताते हुए मतिकुशल ने खरतरगच्छ के आचार्य जिनचंद्रसूरि संतानीय क्षेम शाखा के गुणकीति व मतिवल्लभ का वंदन किया है। इसकी आरंभिक पंक्तियाँ ये हैं-- १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १५२८-२९
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ७०-७१ (न सं०) ।
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