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________________ २०६ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास तिलक सागर - सागरगच्छीय राजसागर > वृद्धिसागर > कृपासागर के शिष्य थे । आपने 'राजसागर सूरि निर्वाण रास' राजसागर सूरि के निर्वाण वर्ष सं० १७२। के तुरन्त बाद लिखा था। राजसागर सूरि के निर्वाण पर हेमसौभाग्य आदि के रास भी लगभग उसी समय के हैं। यह रचना ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित है। संचय के सम्पादक मुनि जिनविजय का विश्वास है कि यह रचना सूरि जी के निर्वाण के पश्चात् दो-तीन महीने के अन्दर ही रची गई होगी। इस रास से सूरि जी के सम्बन्ध में कई तथ्यों का पता चलता है। उनका जन्म संवत् १६३७, उन्हें पंडितपद की प्राप्ति सं० १६७९ में हुई। आचार्य पद पर इनकी प्रतिष्ठा सं० १६८६ में और स्वर्गवास सं० १७२१ में हुआ । गुर्जर प्रदेश के सिंहपुर ग्रामवासी साह देवीदास की पत्नी कोड़ा की कुक्षि से आपका जन्म हआ, लब्धिसागर से विद्याध्ययन किया और दीक्षित हुए, नाम मुगति सागर पड़ा। सं० १६८६ में विजयसरि ने इन्हें अपना पट्टधर बनाया और इनका नाम राजसागर सूरि पड़ा । दिल्ली दरबार में इनका अच्छा मान-सम्मान था। सम्राट जहाँगीर ने इन्हें सरोपा भेट किया था । इस रास का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है वर्द्धमान जिनवर प्रवर, वर्द्धमान गुणगेह, सकल लोकबन सींचवा, अवल अषाढ़ो मेह । राजसागर के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने से सम्बन्धित पंक्तियाँ निम्न हैं--- सारद मात मया मुझ कीजइ, दीजइ वचन रसाला रे, वाचक मुगतिसागर गुणमाला, गाता मंगल माला रे । संवत सोल छआसीआ वरषे, हरषे जेठह मासे रे, परषे शनि अनुराधा दोगई, सरखे सर प्रकासइ, रे। देवविजय सूरीसर मोटा मोटूं कीधी काम रे, आचारज पद देइ वाचकनि, राजसागर सूरि दीधू नाम रे ।' आचार्य पदवी प्राप्ति के पश्चात् आपने अहमदाबाद, खंभात, सूरत, बुरहानपुर आदि स्थानों में विहार करके श्रावकों को उपदेश १. सं० मुषि जिनविजय-ऐतिहासिक गु० काव्यसंचय पृ० ५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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