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________________ २०४ reगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद इतिहास ज्ञानपञ्चमी स्तुति का आदि पंचरूप करी सुरपति प्रभुनिं मेरुशिखर लेइ आवइंजी, अंत - श्री जसविजय पाठक पद सेवक, तत्वविजय जयकारीजी । ' तत्वहंस- - आप तपागच्छीय विजयहंस > मेधा ऋषि > विजय > तेजहंस > तिलकहंस के शिष्य थे । आपने उत्तमकुमार चौपइ ( ५१ ढाल ) सं० १७३१ कार्तिक शुक्ल १३ गुरुवार को मढाड में लिखी । इसमें दान का महत्व समझाया गया है । कवि ने लिखा है धन सुपात्रे दीजिये, पामी जो भवपार; साधु ने दीजी सुझतो लाभोलच्छि अपार । दाने रुडा दीसीये, दान बड़ो संसार; दान थवी सुख सासता, लाभा उत्तम कुमार । इसमें ऊपर दी गई गुरु परंपरा बताई गई है और प्रारंभिक पंक्तियाँ निम्नाति हैं सरसति सामणि पाय नमी, पामी वचनविलास, मन वचन काया करी, हूँ छु ताहरो दास । यह रचना सकर्मण शेठ के पुत्र मोहणहरख के आग्रह पर की गई थी । कवि ने इसका रचनाकाल इन पंक्तियों में बताया है I संवत् सत इकतीसा नो काती शुदि तेरसि दिन सार, सिद्ध योग कीयो रास संपुर्ण शुभ नक्षत्र गुरुवार । मढाड नगरमा सरस संबंध मे तत्वहंस कह्यो मनरंगे, धन्यासिरि मांहि ढाल इकावनमी सुणजो सहुमनचंगे रे । * तिलकचंद -- खरतर गच्छ के नयरंग 7 विमल विनय 7 धर्ममंदिर 7 पुण्यकलश > जयरंग आपके गुरु थे । आपकी एक रचना 'केशी परदेशी संबंध' ( सं० १७४१, जालौर ) का पता चला है जिसकी १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो भाग ४ पृ० ३३८-३४१ ( न०सं० ) और भाग २ ० २२४-२२८ और भाग ३ पु० १२३३ ( प्र० सं० ) । २. वही भाग २ पू० २७५-२७७ ( प्र ० सं ० ) और भाग ४ पृ० ( न०सं० ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only ४३९-४४१ www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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