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यह भी जिनहर्ष ग्रन्थावली में प्रकाशित है ।
दोहा बावनी अथवा मातृका बावनी (सं० १७३० आषाढ़ शुक्ल ९ ) का आदि
गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद इतिहास
ॐ यह अक्षर सार है ऐसा अवर न कोइ;
सिद्ध सरूप भगवान सिव, सिरसां वंदु सोइ ।
शुंकराज रास (७५ ढाल १३७६ कड़ी सं० १७३७ मागसर, शुक्ल ४, पाटण) इस बड़े रास ग्रंथ में कवि ने अपनी गुरु परंपरा बताते हुए कहा है
खरतरगछ गयणांगण चंद समोवडिरे, श्री जिनचंद सुरींद । वाचक शांतिहरख गणीवर सुपसाउले रे, कहे जिनहरष मुणिद ।
आप पद्य के साथ अच्छे गद्य लेखक भी थे । आपकी अनेक गद्य रचनाओं के विवरण उपलब्ध हैं जिनकी चर्चा यथास्थान को जायेगी । आपने मूल गद्य रचनाओं पर पद्यात्मक रचनायें भी की हैं जैसे 'दशवैकालिक सूत्र १० अध्ययन गीत' ( १५ ढाल १७३७ आसो शुक्ल १५ ) और ज्ञाता सूत्र स्वाध्याय (१७३६ फाल्गुन कृष्ण ७, पाटण ) इत्यादि । समकित सितरी स्तवन ( ७ ढाल सं० १७३६ भाद्र शुक्ल १०, पाटण )
यह पंच प्रतिक्रमणसूत्र पृ० ५५० और जिनहर्ष ग्रंथावली में प्रकाशित है ) जिनहर्ष श्रेष्ठ और सरस कवि थे । अनेक परवर्ती कवियों ने आपके काव्य गुणों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। महिमाहंस, कवियण आदि के गीत प्रकाशित हैं। महिमाहंस का गीत ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में 'जिनहर्ष सूरि गीतम्' शीर्षक से पृ० ३०० पर प्रकाशित है । " कवियण की दो पंक्तियाँ देखिए
धन जिनहरष नाम सुहामणु धनधन से मुनिराय । नाम सुहावइ निस्पृह साधु नुं कवियण इम गुणगाय । २
जसराज का व्यक्तित्व आकर्षक एवं तपोमय था । आपने गच्छ के ममत्व का भी त्याग कर दिया था । इसके कारण तपागच्छीय वृद्धिविजय जी काफी प्रभावित हुए थे और इनकी बीमारी के समय बड़ी सेवा सुश्रूषा की थी, इनका हस्तलेख भी सुंदर होता था । इनकी हस्तलिपि का एक चित्र ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० २६० पर १- २. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह ३००-३०१ और २६१-६३ ।
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