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जिनहर्ष
१६३ नाम है पर शांतिहर्ष का नहीं है पर इस अपवाद के अलावा अन्य सभी कृतियों में कवि ने शांतिहर्ष को गुरु माना है ।
रचनाओं का विवरण 'विद्याविलास रास' से ही शुरू करते हैं । इसमें गुरु परंपरा से संबंधित पंक्तियाँ पहले देखिये--
श्री खरतरगछ गयण दिणंदा, श्री जिनरत्न सूरीदा जी; तासु पसाइ चरित सुखकंदा, नीसूणज्यो नरवंदा जी। वाचक गुणवर्द्धन सुखदाया, श्री सोमगणि सुपसाया जी;
इय जिनहरष पुण्य गुण गाया, तीस ढाल सुख पाया जी।' रचनाकाल-सतरें इग्यारोत्तर वरसे श्रावण सुदि मन हरसे जी,
बुधवार नवमी तिथि अवसें कीध चउपई सरसे जी। अर्थात यह रचना सं० १७११ श्रावण शुक्ल ९ बुधवार को पूर्ण हई थी। कुछ आख्यान जिनहर्ष को विशेष प्रिय हैं जिन पर उन्होंने एकाधिक रचनाएँ की हैं। ऐसी रचनाओं में चंदनमलयागिरि सं० १७०४ और सं० १७४४ हैं। आपने श्रीपाल आख्यान पर भी आधारित दो रास लिखे हैं । आगे उनकी कतिपय रचनाओं का विवरण-उद्धरण दिया जा रहा है।
चंदनमलयागिरि चौपाई (३७२ कड़ी, सं० १७०४ वैशाख शुक्ल ५, गुरुवार) का आदि --
सरसति मतिदाइक नमु, त्रिकरण शुद्धि त्रिकाल; रिद्धि सिद्धि दाता सकल सेवक जन प्रतिपाल । चंदन नृप मलयागिरि सायर नीर कुमार,
सांभलिज्यो सहुको जणा तासु प्रबंध विचार । रचनाकाल-- संवत सत्तर चीडोत्तरइ सुभजोग नइ गुरुवार
वैशाख सुद पाँचमि दिनइ कीधउ अधिकार। अन्त-- अनुक्रमे नृप सुख भोगवी छेहउइ तजि भंडार,
नृपनारि चंदण दीख ले सफल करइ अवतार । उपदेश छत्रीसी सवैया की चर्चा पहले की गई है। इसकी भाषा हिन्दी है और यह जिनहर्ष ग्रंथावली में प्रकाशित है। इसका रचना१. मोहनलाल दलीचंद देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग ४ पृ० ८२-१४२
(न० सं०) ।
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