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________________ १५१ जिनलम्बिसूरि मे सम्बन्ध रच्यो मतिसारे नवम अंग अणुसारै जी, भबिमण अण नै वांचण सारै, विसतरजे जगि सारै जी।' परन्तु इसी के ऊपर कवि ने अपना नाम और अपनी गुरु परम्परा स्पष्ट रूप से दी है और अपने को जिनवर्द्धन सूरि>जिनचन्द सूरि> जिन रत्न सूरि का शिष्य बताया है, यथा-- तस पट श्री जिनरत्न विराजै, दिन-दिन अधिक दिवाजै जी जस दरसण मिथ्यामति भाजै, गुण गण करि गुरु गाजै जी । तस शिष्य जिन बधमान जगीस, आसो सुदि छठि दिवस जी संवत सतर दाहोत्तर बरसै, खंभाइत मन हरसै जी। ऊपर के उद्धरण में मतिसार का अर्थ मति के अनुसार होगा। इसी शब्द के कारण शायद देसाई जी को यह भ्रम हुआ होगा कि कोई मतिसार कवि है जिसकी यह रचना है किन्तु अन्त साक्ष्य से ही यह स्पष्ट होता है कि इसके कर्ता वर्द्धमान (बधमान) हैं और उनके गुरु जिनरत्न तथा प्रगुरु जिनचंद सूरि । जिनविजय (i) जैनियों में जिनविजय नाम भी बड़ा लोकप्रिय है। १८वीं शती में कम से चार जिनविजय कवि तो मुझे मिले हैं, हो सकता है कि कुछ और अप्राप्त हों। उनका परिचय क्रमशः दिया जा रहा है। जिन विजय (i) ये तपागच्छीय कल्याणविजय>धनविजयविमलविजय>कीर्तिविजय के शिष्य थे। इनकी चौबीसी (चौबीस जिन स्तवन सं० १७३१ मागसर शुक्ल १३ बुधवार, फलौंधी) प्रमुख रचना है। इनकी अन्य रचनायें हैं जयविजय कुँवर प्रबन्ध और दश दृष्टांत ऊपर दश स्वाध्याय । चौबीसी का आदि - सगबीसे ढाले करी थुणस्युं जिन चौबीस, साभलज्यो सहु चतुर नर श्रवणे विस्वा बीस । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ८०-८१ (प्र० सं०)। २. वही भाग ३ पृ० ११४४ (प्र० सं०), और भाग ४ पृ० १६९-१७० (न० सं०)। ३. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ. ११२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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